गुरुवार, 24 सितंबर 2020

भारत की वीर पुत्री भीकाजी कामा (मैडम कामा) / जन्म दिवस - 24 सितंबर

 



भारत की वीर पुत्री भीकाजी कामा (मैडम कामा) / जन्म दिवस - 24 सितंबर 


भीकाजी कामा जो मैडम कामा के नाम से विख्यात है, भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन एक ऐसा नाम है, जिन्होंने भारत को परतन्त्रता से मुक्त कराने के साथ-साथ विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन में भी अहम योगदान दिया. एक पारसी टिप्पणीकार ने उनके बारे में कहा था उनका मन अपने आप में एक बालक की तरह अबोध है परन्तु एक युवा स्त्री के रूप में वे एक स्वतन्त्र विचारों वाली गर्म मिजाज महिला है. मैडम कामा को भारत की वीर पुत्री भी कहा जाता था.


मैडम कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 में एक रईस पारसी परिवार में हुआ था. उनके पिता सोरावजी फ्रांम जी पटेल बहुत बड़े व्यापारी थे. मैडम कामा का बचपन अंग्रेजी रहन-सहन के अनुसार ही बीता.  बचपन से ही स्वतन्त्र विचारों वाली मैडम कामा स्त्री षिक्षा की प्रबल समर्थक थी. उनका मानना था कि महिलाओं के बगैर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन सफल नहीं हो सकता.  उनका विचार था कि जब तक माताएं पढ़ी-लिखी शिक्षित नहीं होगी तब तक वे आने वाली पीढ़ी को सुशिक्षित और सुसंस्कारी नहीं बना पाएगी.


मुंबई में 1896 में भयंकर प्लेग फैला जिसमें मैडम कामा ने रोगियों की सेवा में नर्स के रूप में काम किया. लेकिन वे स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गई. उनकी गिरती सेहत को देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें विदेश  में इलाज कराने की सिफारिश  की. 1902 में मैडम कामा लन्दन चली गई. लेकिन यहाँ भी उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की अलख जगाए रखी. लन्दन में मैडम कामा दादाभाई नैरोजी के साथ काम करती रही. ब्रिटिश  विरोधी नीतियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने लंदन में उनकी हत्या करने की योजना बनाई. इसकी जानकारी मैडम कामा को मिलते ही वे फ्रान्स चली गई.


फ्रान्स में रहकर भी उन्होंने ब्रिटिश  हुकुमत के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी. फ्रांस से वे खिलौनों में रिवाल्वर छिपाकर भारत भेजती थी, इसके साथ ही वे हर तरीके से स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की मदद करती थी. ब्रिटिश  विरोधी गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने फ्रान्स सरकार पर मैडम कामा को सौंपने का दबाव बनाया, लेकिन फ्रांस सरकार ने उसे खारिज कर दिया. मैडम कामा पहली ऐसी स्वतन्त्रता सेनानी थी जिन्होंने विदेशी धरती स्टुटगार्ड में भारत का राष्ट्रीय झंड़ा फहराया था.


सन् 1909 में मैडम कामा और उनके समर्थकों ने जिनेवा से वंदेमारम् नामक पत्रिका निकाली थी. पत्रिका के प्रथम अंक में स्वतन्त्रता के लिए त्रिस्तरीय फार्मूला बताया गया था. पहला लोगों को शिक्षित करना, दूसरा युद्ध और तीसरा पुनर्निर्माण . बर्लिन में सन् 1910 में प्रकाशित एक राष्ट्रवादी समाचार-पत्र तलवार में लिखी संपादकीय में भी वंदेमातरम् गुट की तारीफ की गई थी. वंदेमातरम् गुट वी.डी. सावरकर की अभिनव भारत सोसायटी से जुड़ा हुआ था. सोसायटी उग्रवादी हत्याओं को महिमा मंडति करती है. सोसायटी से जुड़ने के बाद मैडम कामा सशस्त्र विद्रोह की समर्थक हो गई थी. उनका मानना था कि जब हमारे शत्रु हमें हिंसा के लिए बाध्य करें तो फिर हम हिंसा करने से क्यों बाज आए?


अपने क्रान्तिकारी क्रियाकलापों की वजह से मैडम कामा ने ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ा दी थी. सन 1913 में सरकार ने मैडम कामा को क्रान्तिकारी आन्दोलन की मान्यता प्राप्त नेता बताया . उन्होंने यह भी कहा कि जनता उन्हें देवी काली की तरह पूजती है. 35 सालों तक लगातार मैडम कामा ने विदेशी भूमि से भारतीय स्वतन्त्रता की अलख जगाए रखी. 74 वर्ष की आयु में गिरते स्वास्य के चलते ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत लौटने की इजाजत दी. 1936 में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनके द्वारा चलाया गया आन्दोलन लगातार चलता रहा जो स्वतन्त्र भारत में आकर ही थमा.

शनिवार, 12 सितंबर 2020

सरगढ़ी के रणबाँकुरे जब 21 भारतीय जवानो ने 10 हजार अफगानों को रोक लिया / 12 सितम्बर, 1897

 


सरगढ़ी के रणबाँकुरे जब 21 भारतीय जवानो ने 10 हजार अफगानों को रोक लिया / 12 सितम्बर, 1897


यह विश्व के सैनिक इतिहास की एक अनुपम गाथा है. भारतीय जवानों के शौर्य और पराक्रम का अनुपम उदाहरण है. मात्र 21 सिख सैनिको ने दस हजार अफगानों से जमकर मोर्चा लिया और अपने से कई गुना अधिक दुश्मनों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया.


यह घटना 12 सितम्बर 1897 की है. अंग्रेजो और अफगानों के बीच 1839 से 1919 के बीच 80 सालों मे तीन बड़ी लड़ाईयां हुई. 1897-98 के युद्ध में सिख रेजिमेंट अग्रिम मोर्चे पर थी. इस रेजिमेंट की चौथी बटालियन के 21 जवान सरगढ़ी की सैनिक चौकी पर तैनात थे. इनका नायक था हवलदार ईशर सिंह. इस टुकड़ी को हर हालत में चौकी की रक्षा करने का आदेश मिला था.


12 सितम्बर 1897 के दिन भोर में दस हजार अफगानों ने इस चौकी पर हमला बोल दिया. चौथी बटालियन के जवानो ने भी चौकी के चारो कोनों पर मोर्चा जमा लिया. टुकड़ी के साथ रसोईया भी था उसने भी बंदूक संभाली और मोर्चे पर डट गया. एक ओर दस हजार अफगान लड़ाके और दूसरी ओर 21सिख सैनिक. एक खालसे का मुकाबले में पांचसौ अफगान थे.


सरगढ़ी में बंदुको से गोलिओं की दना-दन बौछार होने लगी. 21 भारतीय वीर हर गोली का जवाब दे रहे थे. सूरज आसमान में चढ़ने लगा. चौकी के जवान एक-एक कर वीरगति को प्राप्त होने लगे. सूरज ढलने के साथ सिख टुकड़ी के सारे सैनिक शहीद हो गए. उसी समय अतिरिक्त भारतीय फौज वहां पहुँच गयी उनकी तोपों की मार से अफगान सेना गाजर-मूली की तरह साफ होने लगी. दुश्मन भागने लगे और भागते ही गये.


सरगढ़ी अविजित ही रहा. इस प्रेरणादायी लड़ाई की याद में भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट हर साल 12 सितम्बर को ‘ सरगढ़ी दिवस ‘ के रूप में मानती है. उन बहादुरों की याद में एक कविता ‘ खालसा बहादुर’ लिखी गई. वीरगति को प्राप्त हुए सभी जवान फिरोजपुर और अमृतसर जिलों के थे. इसलिये इन वीरो कीं याद में दो गुरूद्वारे इन दोनों जिलो में बनायें गये. एक सरगढ़ी गुरुद्वारा अमृतसर स्वर्ण मंदिर के पास हैऔर दूसरा फिरोजपुर सैनिक छावनी में हैं.

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

परमवीर अब्दुल हमीद / बलिदान दिवस - 10 सितम्बर, 1965

 



परमवीर अब्दुल हमीद / बलिदान दिवस - 10 सितम्बर, 1965


1965 में पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया. उसी संग्राम के दरम्यान पंजाब के तरन-तारण जिले के छोटे से कस्बे खेम-करन में भारत और पाकिस्तानी आर्मी के बीच व्यापक पैमाने पर टैंक युद्ध हुआ जिसमे भारत ने अंततः पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित करते हुए उसके लगभग 100 टैंकों को या तो ख़त्म कर दिया या कब्जे में ले लिया. यह युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे भीषण वार के रूप में जाना जाता है.

 

भारत के पास उस समय आधुनिकता के नाम patton के समकक्ष केवल centuriyan टैंक ही थे. जो कि अपर्याप्त थे. केवल पुराने और कमजोर शेर्मन और AMX -13 के साथ भारतीय फ़ौज दुश्मन का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए तैयार थी. भारतीय सेना ने बहादुरी से लड़ते हुए पाकिस्तान के तथाकथित ‘आयरन मैन’ डिवीजन को खदेड़-खदेड़ कर मारा. वीर अब्दुल हमीद जिन्हें मरणोपरांत सर्वश्रेष्ठ परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, ने अकेले युद्धभूमि में 7-7 टैंको को अपनी रिकॉइललेस गन से ही ध्वस्त कर दिया.

 

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के मगई नदी के किनारे बसे छोटे से गांव धामपुर के एक बहुत ही गरीब परिवार में 1 जुलाई सन् 1933 को अब्दुल हमीद का जन्म हुआ था. ८- सितम्बर-१९६५ की रात में, पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमला करने पर, उस हमले का जवाव देने के लिए भारतीय सेना के जवान उनका मुकाबला करने को खड़े हो गए. वीर अब्दुल हमीद पंजाब के खेमकरण सेक्टर में सेना की अग्रिम पंक्ति में तैनात थे. पाकिस्तान ने उस समय के अपराजेय माने जाने वाले "अमेरिकन पैटन टैंकों" के के साथ, "खेम करन" सेक्टर के "असल उताड़" गाँव पर हमला कर दिया.

 

भारतीय सैनिक अपनी साधारण "थ्री नॉट थ्री रायफल" और एल.एम्.जी. के साथ पैटन टैंकों का सामना करने लगे. हवलदार वीर अब्दुल हमीद के पास "गन माउनटेड जीप" थी जो पैटन टैंकों के सामने मात्र एक खिलौने के सामान थी. वीर अब्दुल हमीद ने अपनी जीप में बैठ कर अपनी गन से पैटन टैंकों के कमजोर अंगों पर एकदम सटीक निशाना लगाकर एक -एक कर धवस्त करना प्रारम्भ कर दिया. उनको ऐसा करते देख अन्य सैनकों का भी हौसला बढ़ गया और देखते ही देखते पाकिस्तान फ़ौज में भगदड़ मच गई. वीर अब्दुल हमीद ने अपनी "गन माउनटेड जीप" से सात पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट किया था. देखते ही देखते भारत का "असल उताड़" गाँव "पाकिस्तानी पैटन टैंकों" की कब्रगाह बन गया. लेकिन भागते हुए पाकिस्तानियों का पीछा करते "वीर अब्दुल हमीद" की जीप पर एक गोला गिर जाने से वे बुरी तरह से घायल हो गए और वीरगति को प्राप्त हुए.

 

इस युद्ध में साधारण "गन माउनटेड जीप" के हाथों हुई "पैटन टैंकों" की बर्बादी को देखते हुए अमेरिका में पैटन टैंकों के डिजाइन को लेकर पुन: समीक्षा करनी पड़ी थी. लेकिन वो अमरीकी "पैटन टैंकों" के सामने केवल साधारण "गन माउनटेड जीप" जीप को ही देख कर समीक्षा कर रहे थे, उसको चलाने वाले "वीर अब्दुल हमीद" के हौसले को नहीं देख पा रहे थे.



शनिवार, 5 सितंबर 2020

સાવિત્રીબાઈ ફુલેને શત શત વંદન



સાવિત્રીબાઈ ફુલેની જન્મ જયંતી પર શત શત વંદન

     

 માતા સાવિત્રીબાઈ ફૂલે નો જન્મ 3જી જાન્યુઆરી 1831 નાં દિવસે થયો હતો. માતા સાવિત્રીબાઈ ફૂલે એટલે વિશ્વ નાં એકમાત્ર "શિક્ષણાગ્રહ" નાં અગ્રદૂત, શિક્ષણાગ્રહી.


   આખો દેશ મીઠાનાં સત્યાગ્રહ વિશે રજેરજ ની જાણકારી ધરાવે છે, અરે મીઠાનાં સત્યાગ્રહ તથા સત્યાગ્રહીઓ ની યાદગીરી રૂપે દર વર્ષે એની ઉજવણી કરવામાં આવે છે. અંગ્રેજો નાં અન્યાયકર્તા કાયદા વિરુદ્ધનો એ સત્યાગ્રહ અનન્ય જ છે પરંતુ જેનું મહત્વ આજનાં આધુનિક યુગમાં પણ એટલું જ છે કદાચ એ વખત કરતાં વધારે છે એવાં "શિક્ષણાગ્રહ" અને શિક્ષણ નાં આગ્રહ માં સામા પવને અડીખમ ઊભાં રહેલાં મહાત્મા જયોતિબા ફુલે અને માતા સાવિત્રીબાઈ નાં કર્તૃત્વ ને ખબર નહીં કેમ પરંતુ વાંચી પણ નાં શકાય એવાં કોઈ અજાણ્યા ઈતિહાસ નાં પુસ્તક નાં પાના પર લખીને અંધારાં ખૂણામાં શા માટે સંતાડી રાખ્યું હશે ? 


 મહાત્મા જયોતિબા-સાવિત્રીબાઇના જમાનામાં (ઇ.સ.૧૮૫૦ની આસપાસ) સ્ત્રીઓ અને શુદ્રોની સરખી અવદશા હતી. એમાં પણ સ્ત્રી શુદ્ર સમાજની હોય તો તેની દશા બમણી ખરાબ. સમાનતા જેવો કોઇ શબ્દ તેમની જિંદગીમાં અસ્તિત્ત્વ ધરાવતો ન હતો. બાળલગ્નો સામાન્ય હતાં અને કોઇ પણ સમાજની છોકરીઓના જીવનનું સાર્થક્ય પરણી જવામાં હતું. મહાત્મા જયોતિબા ફુલે અને સાવિત્રીબાઇનાં લગ્ન પણ નાની ઉંમરે થયેલાં બાળલગ્ન જ હતાં. લગ્ન વખતે જયોતિબા ની ઉંમર ૧૩ વર્ષ તથા સાવિત્રીબાઈની ઉંમર માત્ર ૮ વર્ષની હતી. (જન્મઃ ૧૮૩૧). પરંતુ સુધારક મિજાજ ધરાવતા જયોતિબાએ સમાજસુધારાની શરૂઆત પોતાના ઘરથી કરી.  જ્યોતિરાવ નાં પત્ની સાવિત્રીબાઈ ભણેલા નહોતાં,  જયોતિરાવે સાવિત્રીબાઇને ઘરકામમાં ગોંધી રાખવાને બદલે એમને શિક્ષિત કરવાની શરૂઆત કરી. સામે પત્ની સાવિત્રીબાઈ પણ પતિ જ્યોતિરાવ નાં અભિયાન માં એટલી જ ત્વરા તથા ઉત્સાહ થી પ્રતિભાવ આપ્યો. જ્યોતિરાવ નું પોતાનાં પત્ની ને શિક્ષિત બનાવવા નું કાર્ય કોઈ ડિગ્રી માટે નહીં પરંતુ સમાજ માં મહિલા ઓને શિક્ષણ નહીં આપવાની પ્રથા ને કારણે સમાજમાં મહિલાઓ ની ખોવાઈ રહેલી ડિગ્નિટી પરત અપાવવા નાં પવિત્ર હેતુસર હતું,  અન્યાય સામેની લડતની તૈયારી માટે હતું. પત્ની સાવિત્રીબાઈ ને જયોતિરાવે એવાં શિક્ષિત કર્યાં કે તે પોતે અન્ય ને ભણાવી શકે. 


આ તરફ સાવિત્રીબાઈ નું શિક્ષણ પુરું થતાં જ જ્યોતિબા ફુલે એ મહિલા ઓ માટે શાળા શરૂ કરવાનું નક્કી કર્યું. પરંતુ જ્યાં સ્ત્રી ને ભણાવવાની કલ્પના જ મરણપથારીએ પડી હોય ત્યારે કોણ મહાત્મા જયોતિબા-સાવિત્રીબાઈ ને સમર્થન આપે ? આત્યંતિક અને ભારે વિરોધ વચ્ચે મહાત્મા જયોતિબા તથા માતા સાવિત્રીબાઈ કન્યાઓ માટે શાળા ની શરૂઆત કરી. જ્યોતિબા ફુલે ની દૂરંદેશી અહીં જોવા જેવી છે, રૂઢિચુસ્ત સમાજ કદાચ કહેવા પુરતો દિકરી ને ભણાવવાની હા પાડી પણ દે પરંતુ જો શિક્ષક પુરુષ હોય તો એમને દિકરી ને, મહિલાઓ ને નહીં ભણાવવાનું અન્ય બહાનું મળી જાય આ વિચાર થી જ દૂરંદેશી મહાત્મા ફુલે એ પોતે શરૂ કરેલી શુદ્ર કન્યાઓ માટે ની શાળામાં, શિક્ષિકા તરીકે જવાબદારી સાવિત્રીબાઈને આપી, માતા સાવિત્રીબાઈ પણ અદ્ભુત વ્યક્તિત્વ નાં સ્વામિની પતિનાં આદર્શ, ધ્યેય ને સમજી ગયેલાં અર્ધાંગિની તુરંત જ કન્યાશાળા ની જવાબદારી ઉપાડી લીધી.


પ્રશ્ન મોટો તો એ પણ હતો રૂઢિચુસ્તતા અને મિથ્યાભિમાનમાં રાચતા સમાજના ઉપલા વર્ગની સામે પડીને શુદ્ર કન્યાઓને ભણાવવાનું સહેલું ન હતું. આખરે શૈતાનો ની શૈતાનિયત છુપી થોડી રહે. માતા સાવિત્રીબાઈને કથિત ઉજળિયાત વર્ગોએ મહેણાંટોણાં  મારવાની શરુઆત કરી, પરંતુ હિમાલય સમ અડગ એવાં મહાત્મા જ્યોતિબા જેવાં પતિનાં પત્ની એમ કાંઈ ડગે ખરાં ? સમાજ ની મહિલાઓ ને તેમનાં સ્વમાન અને સન્માન ને શિક્ષણ થી વિભુષિત કરવાનાં મહાત્મા જયોતિબા ફુલે નાં સ્વપ્ન ને સાકાર કરવા માટે સાવિત્રીબાઈ ને મન મહેણાંટોણાં સાંભળવા કશું વિસાતમાં નહોતાં. પોતાનાં મહેણાંટોણાં થી સાવિત્રીબાઈ ને કશો જ ફરક નથી પડતો એવું જોઈને રૂઢિચુસ્ત અને મિથ્યાભિમાની ઓ ઓર નીચલી કક્ષાએ પહોંચી ગયા અને સાવિત્રીબાઈ જ્યારે શાળા માં કન્યાઓ ને ભણાવવા માટે ઘેરથી નીકળે એટલે રસ્તા માં સાવિત્રીબાઈ ઉપર કાદવકીચડ, છાણ, ગંદકી ફેંકવા ની શરૂઆત કરી અરે પથ્થરો મારતાં પરંતુ માતા સાવિત્રીબાઈ જેમનું નામ ડગવાનુ કે પાછાં પગલાં ફરવાનું તો શિખ્યા જ નહોતાં સાવિત્રીબાઈ મેરુ પર્વત જેવા મક્કમ અને અડગ હતાં. પરંતુ કાદવકીચડ, છાણ, ગંદકી વાળાં કપડાં પહેરીને શાળા માં જવાય નહીં અન્યથા દિકરીઓને ખોટો સંદેશો જાય કે ગંદા કપડાં પહેરી શકાય, પહેરીને શાળા માં આવી શકાય તો સ્વચ્છતા નાં શિક્ષણ નું શું ? પતિ જેટલા જ દૂરંદેશી તથા અડગ મનોબળ ધરાવતાં માતા સાવિત્રીબાઈ શાળા એ જતી વખતે પોતાની સાથે થેલીમાં કપડાં ની બીજી જોડી રાખવા માંડ્યા અને શાળાએ પહોંચી ને સમાજ દુશ્મનો એ ગંદકી નાંખી ને બગાડેલા કપડાં બદલી દેતાં.  સાવિત્રીબાઇ મક્કમ હતાં તેમના સંઘર્ષનો ખ્યાલ એ હકીકત પરથી આવશે કે કન્યાકેળવણીના કામ માટે જયોતિરાવે સાવિત્રીબાઇને બે સાડી આપી હતી, એક ઘરેથી નિશાળે જતાં સુધી પહેરવાની અને ઉજળિયાતોના શબ્દાર્થમાં ગંદા હુમલાને કારણે એ સાડી ખરાબ થઇ જાય એટલે નિશાળે જઇને એ સાડી બદલીને બીજી સાડી પહેરવાની. 


પોતાની પર હીણા હુમલા કરનારાને સાવિત્રીબાઇ કહેતાં હતાં,‘હું તો મારી ફરજ બજાવું છું. ભગવાન તમને માફ કરે.’ એક વાર કોઇએ તેમની છેડછાડની કોશિશ કરી ત્યારે સાવિત્રીબાઇએ એક તમાચો ચોડી દીધો. ત્યારથી રસ્તામાં થતી હેરાનગતિ અટકી, પણ સમાજનું દબાણ ચાલુ રહ્યું. જયોતિરાવ-સાવિત્રીબાઇ સામે પોતાનું જોર ન ચાલતાં હંમેશા બનતું રહ્યું છે તેમ  લોકોએ જયોતિરાવના પિતા પર દબાણ કર્યું.  જયોતિરાવના પિતાએ દબાણ ને વશ થઈ નાછુટકે, અનિચ્છાએ પણ જ્યોતિરાવ તથા સાવિત્રીબાઈ નેશાળા અથવા ઘર- બેમાંથી એકની પસંદગી કરવા કહ્યું. પરંતુ પોતાના ધ્યેય ને પ્રાપ્ત કરવા માટે જ જીવન જીવતાં જયોતિરાવે શાળા પસંદ કરી, જ્યોતિરાવ નાં ધ્યેય ને પૂર્ણ કરવા માટે અર્ધાંગિની તરીકે સાવિત્રીબાઈ એ પતિને પગલે જ આગળ વધવાનું પસંદ કર્યું અને બંનેએ ઘર છોડ્યું. જોકેસાવિત્રીબાઇને ઘરમાં રહેવું હોય તો છૂટ હતી, પરંતુ જરા સરખા ખચકાટ વિના સમાજ સુધારણાના પતિનાં ધ્યેય નાં સાથી બનીને તેમણે ઘર છોડી દીઘું. નિશાળે ભણવા આવતાં શુદ્ર બાળકોને જાહેર કૂવા કે જાહેર પરબ પરથી પીવા માટે પાણી પણ ન મળે. એ વખતે સાવિત્રીબાઇ પોતાના ઘરેથી તેમને પાણી આપતાં હતાં. 


ભારતીય સમાજમાં જાગૃતિ નો પવન ફૂંકાવો શરુ થયો હતો,સતીપ્રથા બંધ થઇ અને વિધવાવિવાહ સામેનો વિરોધ ચાલુ થયો. તત્કાલીન સમાજમાં વિશિષ્ટ સ્થિતિ સર્જાઇ. યુવાન વયે વિધવા થયેલી, ખાસ કરીને ઉજળિયાત સ્ત્રીઓની હાલત દયનીય બની. તેમને અસ્પૃશ્યની જેમ જીવવું પડતું. વયના પ્રભાવને કારણે કોઇ સાથે સંબંધ થાય અને વિધવા સ્ત્રી માતા બનવાની હોય ત્યારે તેની સામે જીવનું જોખમ વેઠીને ગર્ભપાત કરાવવા કે આત્મહત્યા કરવા સિવાય બીજો કોઇ રસ્તો રહેતો ન હતો. આ પરિસ્થિતિ જયોતિબાના ઘ્યાન પર આવી. એટલે તેમણે જાતિના ભેદભાવ રાખ્યા વગર વિધવા સ્ત્રીઓ માટેનું પ્રસુતિગૃહ ઊભું કર્યું. એક બ્રાહ્મણ વિધવા બહેનને જયોતિબા સમજાવી ને આપઘાતના રસ્તે આગળ વધતી પાછી વાળીને પોતાના ઘરે લઇ આવ્યા. બહેને પોતાની વ્યથા વ્યક્ત કરી કે જો તે બાળકને જન્મ આપશે તો પિતાનાં નામ વગરના બાળકને સમાજ નહીં સ્વીકારે અને એ બાળક નું જીવન વેદનાથી ભરપૂર નરક સમાન બની જશે. વિધવા બહેનની વ્યથા સાંભળી ને જ્યોતિબા ફુલે એ તેના ભાવિ સંતાનના પિતા તરીકે પોતાનું નામ આપવાની તૈયારી બતાવી. પત્ની તરીકે કેટલી વિકટ પરિસ્થિતિ હશે તેની કલ્પના આજે પણ ધ્રુજાવી દે પરંતુ સાવિત્રીબાઇ જ્યોતિબાની સાથે અડીખમ ઊભાં હતાં. એ વિધવા સ્ત્રીના પુત્રને ફુલે દંપતિએ દત્તક લીધો અને એ પુત્ર યશવંતે જ પહેલાં પિતા જ્યોતિબા અને પછી માતા સાવિત્રીબાઇને અગ્નિદાહ આપ્યો. 


સાવિત્રીબાઇનું મહત્ત્વ કેવળ જોતિબાનાં પત્ની હોવામાં નહીં, પણ સામા પૂરે તરનારા પતિનાં સરખેસરખાં સાથી બની રહેવામાં છે.


બે કાવ્યસંગ્રહો ‘કાવ્યફૂલે’ અને ‘બાવનકશી સુબોધરત્નાકર’ ઉપરાંત જોતિબાને તેમણે લખેલા પત્રોનાં સંકલન પ્રગટ થયાં છે. આજીવન સંઘર્ષ પછી ૧૮૮૮માં જોતિબાનું અવસાન થયું. તેમના ગયા પછી ૧૮૯૩માં પડેલા ભીષણ દુકાળ વખતે અને ૧૮૯૭માં ફાટી નીકળેલા પ્લેગ વખતે સાવિત્રીબાઇએ રાહતકાર્યોમાં જાતને જોતરી દીધી. પ્લેગના દર્દીઓની સેવા કરતાં તેમને પણ ચેપ લાગ્યો અને ૧૦ માર્ચ, ૧૮૯૭ના રોજ ૬૬ વર્ષની વયે તેમનું મૃત્યુ થયું. આજે તમામ ક્ષેત્રોમાં સ્ત્રીશક્તિનો સ્વીકાર થયો છે, ત્યારે એ ક્ષેત્રે સાવિત્રીબાઇનું પ્રદાન આટલાં વર્ષો પછી પણ અવિચળ છે.

संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई है...