सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लड़ाकू सेनानी और प्रथम शहीद “तिलका मांझी जिन्हें “जबरा पहाड़िया” के नाम से भी जाना जाता है। तिलका मांझी वह व्यक्तित्व है जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सर्व प्रथम सशस्त्र आवाज उठाई थी, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लंबी लड़ाई छेड़ी थी । अंग्रेजी गुलामी के विरुद्ध, अंग्रेजों की बर्बरतापूर्ण सरकार के विरुद्ध तिलका मांझी ने गगनभेदी आवाज उठाई थी। स्वतंत्रता देवी के पूजारी इस वीर स्वाधिनता सैनिक को 1785 में अंग्रेजों ने फांसी दे दी। तिलका मांझी के प्राणों की आहुति ने स्वतंत्रता संग्राम की आग को लगातार जलाए रखा जिसकी आंच 1957 संपूर्ण भारत में लगी और स्वाधिनता की यज्ञवेदी की ज्वालाने अंग्रेजों और अंग्रेजी सरकार की जड़ों को जलाना शुरू कर दिया।
पहाड़िया भाषा में “तिलका” का अर्थ होता है गुस्सैल और लाल आंखों वाला व्यक्ति और ग्राम प्रधान को “मांझी” कहा जाता है, जबरा पहाड़िया ग्राम प्रधान थे इसलिए उन्हें मांझी कहा जाता है। यह एक कारण है कि हिल रैंजर्स के सरदार जौराह उर्फ जबरा पहाडीया, जबरा मांझी या तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। अंग्रेज काल के दस्तावेजों में भी तिलका मांझी नाम का उल्लेख नहीं है परंतु जबरा पहाड़िया के नाम से उल्लेख है। उनका मुल नाम जबरा पहाड़िया ही था किन्तु अंग्रेजों ने उन्हें खुंखार डाकु और गुस्सैल (तिलका) मांझी ( समुदाय प्रमुख) नाम दिया।
जन्म
तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 11 फरवरी 1750 में आज के बिहार के सुल्तानगंज में तिलकपूर नामक गांव में एक आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सुदरा मुर्मु था। कहा जाता है कि तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया मुर्मु गोत्र के थे। तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के नाम से भी जाना जाता है। आदिवासी परिवार में जन्मे तिलका मांझी बचपन से ही अपने संस्कृति और सभ्यता की छत्रछाया में धनुष-बाण चलाना, जंगली जानवरों का शिकार करना, घने जंगलों में नीडर होकर घुमना सिखा । कुश्ती करना, ऊंचे पहाड़ व पेड़ों पर आसानी से चढ़ना-उतरना, घने जंगलों, बीहड़ों, घाटी ओं में घुमना उनके लिए दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन चुके थे। इसी जीवन ने उन्हें बहादुर, वीर, साहसी, पराक्रमी और निर्भय एवं योद्धा बना दिया था।
अंग्रेजों का दमन और विद्रोह करता मन
तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने बाल्यकाल से ही अंग्रेजों के द्वारा उनके समूहों के उपर हो रहे अत्याचार और दमन देखा था और मन ही मन गुस्सा करते हुए कैसे अपने समूहों को अंग्रेजी सरकार के अत्याचारों और दमन से छुटकारा मिल सके यह सोचते रहते थे। बाल्यकाल से ही मस्तिष्क में अंग्रेजों के विरुद्ध उठता ज्वार किशोरावस्था में तुफान बन गया था। निर्दोष, भोले और गरीब आदिवासियों की जमीन, खेती, जंगल के वृक्षों पर अंग्रेजों ने अपने अंकुश में ले लिया था। इन भोले आदिवासी परिवारों के बुढे, बच्चे और महिलाओं को अंग्रेजी सरकार अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया करती थी। आदिवासिओं के अंचल के इलाकों में पहाड़ी जनजाति का शासन हुआ करता था परंतु वहां के सरदार भी अपनी भूमि, खेती और जंगल को बचाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष करते थे। जब यह आदिवासी समुदाय अंग्रेजों से संघर्ष कर रहे थे तब पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहते जमीनदारों में अंग्रेजों की भक्ति छाई हुई थी। जब जब आदिवासी समुदाय की लडाई अंग्रेजों से आमने-सामने हो जाती थी तब तब वो पर्वतीय भारतीय जमीनदार अंग्रेजों के समर्थन में उतर आते थे और अंग्रेजी सरकार को खुलकर साथ देते थे।
विद्रोह
बाल्यकाल से ही पनप रही विद्रोह की चिंगारी किशोरावस्था में अंग्रेजों के अत्याचारों को देख ज्वाला का स्वरुप धारण कर रही थी। अंततः एक दिन इस विद्रोह की ज्वाला ने आग का वेश ले लिया और तिलका मांझी ने “बनैचारी जोर” नामक स्थान से अंग्रेजों और अंग्रेजी सरकार, गुलामी के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। बहादुर तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी वीरों की टुकड़ी ने अपने कदमों को सुल्तानगंज, भागलपुर और दुर सुदुर के जंगल के क्षेत्रों में पसारा। तिलका मांझी की अगुवाई में आदिवासी वीरों की टुकड़ी आगे बढती जा रही थी। राजमहल के क्षेत्रों में इन आदिवासी वीरों की भिड़ंत अंग्रेजी सैनिकों से हो गई, वीरों की टुकड़ी की बहादुरी के सामने अंग्रेजों के सैनिक हार रहे थे, स्थिति का जायजा लेने के बाद अंग्रेजों ने अपने चालाक और फूट डालो और राज करो की नीति पर चलने वाले अधिकारी क्लिवलेंड को मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया और संपूर्ण सत्ता के साथ राजमहल भेजा। तिलका मांझी अंग्रेजों की फूट डालकर शासन करने की योजना को समज गये और अंग्रेजी सरकार को खुलकर ललकारा और स्वतंत्रता की लडाई ओर तेज कर दी।
गुरिल्ला युद्ध और क्लीवलैंड की हत्या
अब तिलका मांझी और उनके रणबांकुरों की लडाई क्लीवलैंड की अंग्रेजी सेना और स्वयं क्लीवलैंड से हो रहा था। सुल्तानगंज, भागलपुर से लड़ते हुए तिलका मांझी और उनके रणबांकुरो की सेना अब जंगलों, तराई, गंगा, ब्रह्मपुत्रा आदि नदियों की घाटीओं से होकर मुंगेर, भागलपुर और संथाल परगना के इलाकों में आ चुके थे। संथाल परगना के पर्वतीय क्षेत्रों में तिलका मांझी और उनके वीर, साहसी, पराक्रमी आदिवासी स्वतंत्रता सैनिक छत्रपति शिवाजी महाराज की युद्ध कला गुरिल्ला युद्ध का प्रयोग कर रहे थे। क्लीवलैंड और आयर कुट की अगुवाई वाली अंग्रेजी सेना को तिलका मांझी और उनके वीरों ने जमकर चुनौती दी, तिलका मांझी के सैनिक छुप छुप कर अंग्रेजों की सेना पर हमला करने लगे थे, अंग्रेजी सेना से कई स्थानों पर जमकर लड़ाई होती रही परंतु तिलका मांझी के सैनिक हार नहीं मान रहे थे। तभी तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया के सैनिक लड़ते लड़ते भागलपुर की ओर आगे बढ़ने लगे, आगे बढ़ते बढ़ते वीर साहसी आदिवासी योद्धाओं ने अंग्रेजी सेना पर जमकर, छीप छीपकर अस्त्र शस्त्र प्रहार करते रहे। क्लीवलैंड की अंग्रेजी सेना तिलका मांझी का पीछा कर रही थी, उसी समय मौका पाकर तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया एक ऊंचे ताड के वृक्ष पर चढ गए, ठीक उसी समय अपने घोड़े पर सवार क्लीवलैंड उसी ताड के वृक्ष की ओर आया। दक्ष और चौकन्ने तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया ने समय और मौके का फायदा उठाकर अपने धनुष से क्लीवलैंड पर बाणों की बौछार कर दी और उस आततायी, अत्याचारी, अंग्रेजी सरकार के अफ़सर को मार गिराया। 13 जनवरी 1784 के दिन तिलका मांझी ने क्लीवलैंड को मार गिराया, इस घटना का समाचार सुनकर अंग्रेजी सरकार में जैसे भुकंप आ गया, डांवाडोल हो गई, अंग्रेजी अफसरों में तिलका मांझी और उनके रणबांकुरों का भय व्याप्त हो गया।
साथी सरदार का द्रोह और धरपकड़
भारतीय परतंत्रता का इतिहास द्रोहियों के बिना नहीं लिखा जा सकता, ऐसे अनेक राष्ट्र द्रोहियों के कारण ही भारत विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ और गुलाम बना। तिलका मांझी और उनके वीरों के बीच में भी एक ऐसा ही गद्दार पनप रहा था। अविराम युद्ध कर रहे तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया और उनके वीरों की टुकड़ी एक पर्वतीय क्षेत्र में रात्रि के समय स्थानिक उत्सव में शामिल थे, आदिवासी समुदाय अपने प्रिय सरदार के सामने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहा था, तिलका मांझी और उनके सैनिक इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में मग्न थे उसी समय एक गद्दार सरदार जाउदाह ने तिलका मांझी और उनके वीरों पर आक्रमण कर दिया, बहादुर वीर तिलका मांझी बच गए, उनके सैनिक उन्हें बचाने में सफल हो गए परंतु अनेक राष्ट्रभक्त वीर शहीद हुए, काफी देशभक्त नायकों को पकड़ लिया गया और उन पर तिलका मांझी के ठिकानों को जानने के लिए अमानवीय अत्याचार कीए गए। तिलका मांझी बचकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल क्षेत्रों में शरण ली, परंतु अंग्रेजी सेना ने तिलका मांझी को पकड़ने के लिए आकाश पाताल एक कर रही थी। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज और वो सभी क्षेत्र जहां तिलका मांझी के होने की संभावना अंग्रेजी सरकार को था वहां तिलका मांझी को पकड़ने के लिए जाल बिछाया गया था।
अंग्रेजी सरकार ने तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया के समर्थकों को ढुंढ ढुंढ कर पकड़ना शुरू कर दिया था और इस कार्य के लिए तिलका मांझी के सैनिक में फूट डालने की कोशिशें की जा रही थी। समर्थकों के पकड़े जाने के कारण अब तिलका मांझी और उनके वीरों के लिए पर्वतीय अंचल क्षेत्रों में छुप-छुपकर संघर्ष करना कठिन हो रहा था, तिलका मांझी की सेना के पास अब अन्न उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। कठिन परिस्थितियों को देखते हुए तिलका मांझी और उनके वीरों ने अंग्रेजी सेना पर छापामार कार्रवाई करनी शुरू कर दी। एक बार तिलका मांझी और उनके आदिवासी वीरों की टुकड़ी ने अंग्रेजी सेना पर प्रत्यक्ष रूप से हमला किया, दोनों सेनाओं की ओर युद्ध हुआ, तिलका मांझी के सैनिक हार मानने को तैयार नहीं थे, वीरता का परिचय जैसे प्रतिक्षण हो रहा था, परंतु आखिर अंग्रेजों ने तिलका मांझी और उनके वीरों को घेर लिया, तिलका मांझी के लिए अब बचकर निकल जाना और अपने अपने सैनिकों को बचाना मुश्किल हो गया था। आखिर अंग्रेजों की सेना कामयाब हुई और वीर तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया को बंधक बना लिया गया।
तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया को बंधक बनाने के बाद अंग्रेजों की बर्बरतापूर्ण सरकार का अमानवीय चहेरा सामने आया कहते हैं कि जबरा पहाडीया उर्फ तिलका मांझी को चार घोड़ों के पीछे बांधकर मीलों तक घसीटते हुए भागलपुर लाया गया।
1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया. उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके न,डरे. उन्होंने स्थानीय सूदखोरों-ज़मींदारों (दिकुओं) एवं अंग्रेज़ी शासकों को जीते जी कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया, मीलों तक घसीटने के बावजूद भारत मां का यह वीर, साहसी, पराक्रमी योद्धा जिवीत था। स्वतंत्रता के संग्राम में लड़ते हुए रक्त स्नान कीए देह को देखकर भी अंग्रेज़ों में डर देखा जा सकता था। तिलका मांझी की गुस्सैल लाल लाल आंखें अंग्रेजी सरकार को जैसे डरा रही थी। भयभीत अंग्रेजों ने तिलका मांझी को भागलपुर के चौराहे पर खड़े एक विशाल वृक्ष पर सरेआम उनकी निर्मम, अमानवीय हत्या कर दी। हजारों लोगों की उपस्थिति में जबरा पहाडीया उर्फ तिलका मांझी हंसते हंसते फांसी पर झुल गए। तिलका मांझी को जिस दिन फांसी दी वह तारीख संभवतः 15 जनवरी 1785 थी। इस घटना के बाद तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडीया का अनुसरण करते स्वतंत्रता के लड़ाके “हांसी हांसी, चढबो फांसी”गीत गाते गाते फांसी पर चढ गए।

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