शनिवार, 17 नवंबर 2018

भारत का प्रथम जलियांवाला हत्याकांड : मानगढ़ पहाड़ी

ओ रे भुरेतिया नइ मानु रे, नइ मानु अर्थात् ओ अंग्रेजों हम नहीं झुकेंगे तुम्हारे सामने यह गाना गाते हुए राजस्थान और गुजरात की सीमा में मानगढ़ नामक पहाड़ी पर करीब 1500 से ज्यादा भारतीय आदिवासी भीलों ने अंग्रेजों के आगे न झुककर अपने प्राणों की आहुति दी थी।
गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में फैले वागड़ अंचल की लोक-संस्कृति, परंपराओं और जीवन अपने आपमें अनुठा है। यह क्षेत्र शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भले ही पिछड़ा माना जाता हो परंतु इसी अंचल से लोक चेतना, सामाजिक सुधार एवं स्वातंत्र्य की अभिप्सा से अलंकृत है। स्वाभिमान की रक्षा की द्रष्टी से वागड़ अंचल किसी से भी कम नहीं है, आत्म सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के संस्कार का ज्वलंत प्रतिक एवं अतुलनीय उदाहरण है मानगढ़-धाम ।
17 नवंबर 1913 के दिन राजस्थान – गुजरात की सीमा में फैली अरावली पर्वत श्रंखला में शामिल मानगढ़ नामक पहाड़ी पर मेजर एस बैली और कैप्टन इ. स्टाइली ने आदिवासियों के ऐसे बर्बर नरसंहार को अंजाम दिया था, जिसको वर्तमान इतिहास में वो स्थान नहीं मिल पाया जिसका वो अधिकारी था। यह देशभक्त आदिवासी भीलों ने गोविंद गुरु के नेतृत्व में अपना बलिदान दिया था।
गोविंद गुरु का जन्म 30 दिसंबर 1858 में वर्तमान राजस्थान के डुंगरपुर जिले के बासीपा गांव के एक बंजारा परिवार में हुआ था। गोविंद गुरु सामाजिक रूप से जागरूक एवं धार्मिक भावनाओं से भरे व्यक्तित्व के स्वरुप थे। उन्होंने भीलों और गरासियों में व्याप्त कुरितियों के विरुद्ध जागरूकता यज्ञ शुरू किया हुआ था। 1890 के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने भीलों के सशक्तिकरण के लिए “भगत आंदोलन” शुरू किया। इस आंदोलन में अग्नि देवता प्रतिक स्वरुप माना गया था, गोविंद गुरु के अनुयायियों को पवित्र अग्नि के सन्मुख खड़े होकर पूजा के साथ साथ हवन यानी धुनी करना होता था। गोविंद गुरु के “भगत आंदोलन” के कारण भीलों ने शाकाहार अपनाना और सभी प्रकार के मादक एवं नशीले पदार्थों के सेवन से दूर रहना शुरू कर दिया था । गोविंद गुरु इस धुनी के माध्यम से भीलों में एकता को बढ़ावा देने लगे, साथ साथ दुराचार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, और सादगी से जीवन जीने के लिए जागृति लाने लगे। “भगत आंदोलन” को मजबूत करने के लिए गुजरात धरा पर “संप सभा” नामक सामाजिक एवं धार्मिक संगठन शुरु हुआ और देखते ही देखते संप सभा गांव गांव तक फैल गया।
उस समय दक्षिणी राजस्थान के सामंतों, जमींदारों और अंग्रेजों के द्वारा आदिवासी भीलों का बंधुआ मजदूरी, भारी लगान से शोषण और गोविंद गुरु के अनुयायियों का उत्पीडन किया जाता था। भगत आंदोलन और संप सभा सामंतों, जमींदारों एवं अंग्रेजी जड़ों को हिलाने लगा है इस बात का अंदाजा आने के बाद सामंतों, जमींदारों एवं अंग्रेजी सरकार ने षड्यंत्र कर गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर लिया परंतु आदिवासी भीलों की एकता और विरोध से डरकर उनको रिहा कर दिया गया।
गोविंद गुरु ने 1903 में मानगढ़ पहाड़ी पर अपनी धुनी लगाई,1910 में उनके आव्हान और मार्गदर्शन से भीलों ने अपनी ओर से 33 मांगे अंग्रेजों के सामने रखी, जिसमें प्रमुख मांगे थी अंग्रेजों, सामंतों एवं जमीनदारों की मुफ्त में बंधुआ मजदूरी से मुक्ति, भारी लगान कम हो और गोविंद गुरु के अनुयायियों पर हो रहे अत्याचार बंद करना था परंतु भीलों की मांगों को अस्वीकार कर दिया गया ।
अंग्रेज़ों, सामंतों और जमीनदारों के द्वारा अपनी मांगे अस्वीकार करने के बाद तथा मुफ्त में बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को समाप्त नहीं करने के कारण गोविंद गुरु के अनुयायियों में तथा भीलों में रोष का वातावरण उत्पन्न हुआ और नरसंहार के एक महीने पहले ही भीलों ने मानगढ़ पहाड़ी पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों से अपनी स्वतंत्रता की सौगंध खाई। खतरे को भांपकर शातिर अंग्रेजों ने वर्षभर जुताई के सवा रुपए की पेशकश की परंतु भीलों ने इसे ठुकरा दिया।
भीलों ने अब संघर्ष की शुरुआत कर दी थी, इस संघर्ष का नारा बना “ओं भुरेतिया नइ मानु, रे नइ मानु” “ओ अंग्रेजों नहीं झुकेंगे तुम्हारे सामने” इस संघर्ष की प्रथम घटना संतरामपुर के पुलिस थाने पर हुए हमले में एक पुलिस अधिकारी की मौत हो गई। इस घटना के बाद बांसवाड़ा, संतरामपुर, कुशलगढ़, डुंगरपुर, मध्यप्रदेश के कुछ इलाके एवं गुजरात के कुछ इलाकों में गोविंद गुरु के अनुयायियों की शक्ति बढ़ने लगी, इससे अंग्रेजों एवं रजवाड़ों को लगा कि इस आंदोलन को कुचल देना चाहिए।
भीलों ने गोविंद गुरु के नेतृत्व में मानगढ़ पहाड़ी को अपना केन्द्र बनाया हुआ था । भीलों को मानगढ़ पहाड़ी खाली करने की चेतावनी दी गई जिसकी आख़री दिनांक 13 नवंबर 1913 थी परंतु गोविंद गुरु के नेतृत्व में उनके अनुयायी भीलों ने इसे मानने से इन्कार कर दिया।
17 नवंबर 1913 को मेजर हैमिल्टन सहित तीन अंग्रेज अफसरों के नेतृत्व में उनकी सैनिक टुकड़ी और रजवाड़ों की अपनी सेना ने मानगढ़ पहाड़ी को संपूर्ण रुप में घेर लिया, भीलों को वहां से डराकर भगाने के लिए हवा में गोलियां चलाई गईं, कुछ ही क्षणों में अंग्रेजी असली बर्बरता सामने आई और हजारों भीलों पर अंधाधुंध, निरंकुश गोलियों की बौछार कर दी गई। काफी आदिवासी भील खेड़ापा खाई की ओर भागे जिससे उनकी मौत हो गई। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने खच्चरों पर बंदूकें बांध दी थी और खच्चरों को गोल दौड़ाया जा रहा था उस बंदूकों से गोलियां चल रही थी ऐसा इसलिए किया गया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारा जाए, और इसकी कमान अंग्रेजी अफसर एस. बैली और कैप्टन इ. स्टोइली के हाथ में थी।
इस जधन्य, अमानवीय नरसंहार में करीब 1500 से ज्यादा भील एवं अन्य वनवासी की हत्या कर दी गई, कहते हैं यह बर्बर हत्याकांड अंग्रेज अफसर ने तब रोका जब उसने देखा कि एक वनवासी स्त्री मारी गई है और उसका बच्चा उसके निष्चेट शरीर से चिपककर स्तनपान कर रहा था।
इस हत्याकांड के कारण मानगढ़ पहाड़ी के आसपास के विस्तारों में इतना खौफ पैदा हो गया था कि स्वतंत्रता के बाद भी कइ वर्षों तक भील मानगढ़ पहाड़ी जाने से कतराते थे। अंग्रेजों ने भी इस बर्बर हत्याकांड के सबुतों को मिटाने की ही मंशा से इस जगह को प्रतिबंधित घोषित कर दिया था।
1500 से अधिक भीलों एवं अन्य वनवासी ओं की हत्या कर दी गई थी उसके बाद भी बचे हुए करीब 900 लोगों ने मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने से, खाली करने से मना कर दिया। अंग्रेजों ने उन सभी को गिरफ्तार कर लिया । गोविंद गुरु को भी पैर में गोली लगी थी, अंग्रेजों ने उनको भी पकड़ लिया। गोविंद गुरु को अहमदाबाद और संतरामपुर की जैल में बंदी बनाकर रखा गया, बाद में उन पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई बाद में उसे बदलकर आजीवन कारावास कर दिया गया। उनके अच्छे व्यवहार और लोकप्रियता को देखते हुए 12 जुलाई 1923 में अपने समर्थकों के विस्तार में जाने पर प्रतिबंध लगाकर मुक्त कर दिया गया। मुक्त होने के बाद गोविंद गुरु गुजरात के दाहोद के मीराखेडी आश्रम – भील सेवा मंडल पर कुछ वर्षों तक वनवासी समाज में जागृति का कार्य करते रहे, बाद में पंचमहाल के लीमडी नजदीक कंबोइ में रहे, 30 अक्टूबर 1930 को उनका स्वर्गवास हुआ।
अंग्रेजों की बर्बरता के प्रतिक मानगढ़ धाम का यह हत्याकांड 19 अप्रैल 1919 में हुए पंजाब के जलियांवाला बाग के हत्याकांड के 6 वर्ष पहले हुआ था। इतिहास में मानगढ़ पहाड़ी के शहिदों को कदाचित उतनी जगह नहीं मिली है जिसके वो अधिकारी है। परंतु लहु अंत में तो लहु ही है टपकेगा तो जमकर ही रहेगा, इस कुदरत के न्याय को प्रमाण देते हुए आज हजारों लोग मानगढ़ धाम इन शहिदों को वंदन करने और अपनी कृतज्ञता प्रकट करने आते हैं।

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