जीवमात्र का तारणहार वीर मेघमाया
गुजरात की भूमि पर अनेक राजाओ एवं राजवंशोने राज किया और गुर्जर धरा को वैभवशाली बनाया। सभी राजवंशो के इतिहास को देखकर यह दृष्टिगोचर होता है कि सोलंकी वंश के काल को गुजरात का स्वर्णयुग माना जाता है । सोलंकी वंशका काल ई. स. 942 से ई. स. 1244 तक गिना जाता है । इस समय में सोलंकी वंश के कुल 12 राजाओने गुर्जर भूमि पर राज किया । सोलंकी वंश के शासकोंने अनेक प्रजालक्षी कार्य किए । इस वंश के छठ्ठे उत्तराधिकारी के रूप में सिद्धराज जयसिंहने ई. स. 1092 से ई. स. 1142 तक गुर्जर धरा उपर अपनी ध्वजा फहराई, राज किया ।
सिद्धराज जयसिंह को स्थानिक भाषा में "सघरा जेसंग" के नाम से भी जाना जाता है । सभी सोलंकी वंश के राजा मूर्तिकला और वास्तुकलाके निर्माण में अभिरुचि रखनेवाले थे। सिद्धराज जयसिंह भी इन्हीं राजाओ में से एक थे। सिद्धराज जयसिंहने प्रसिद्ध रुद्रमहालय का निर्माणकार्य भी पूरा करवाया जो उनके दादा के समय से शुरू हुआ था । धोलका का मलाव तालाब भी सिद्धराज जयसिंह के शासनकाल के दौरान ही बनाया गया था। इसके अतिरिक्त सौराष्ट्र में भी सिद्धराज जयसिंह द्वारा कई निर्माण करवाए गए थे, जिसके अवशेष आज भी चोबारी, आणंदपुर, वढवाण आदि स्थानों में देखे जा सकते है । सिद्धराज जयसिंह के शासनकाल के दौरान किये गए सबसे बेहतरीन वास्तुशिल्प निर्माणों में से एक यानी 1008 शिवलिंगों से अलंकृत पाटण की शोभा बढाता हुआ सहस्त्रलिंग सरोवर का निर्माण है । सहस्त्रलिंग सरोवर के निर्माण के साथ साथ बुनकर समुदाय के अस्मिता, श्रद्धा एवं आस्था के प्रतीकों में शिरमोर ऐसे वीर मेघमाया देवजी के सर्वोत्कृष्ट बलिदान का इतिहास जो बुनाई के तारों की तरह हरहंमेश बना हुआ है।

बुनकर समुदाय जो स्थानिक रुप से वणकर समुदाय कहा जाता है इस समुदाय के विश्वास, आत्मसम्मान व आस्था के जीवंत प्रतीक समान वीर मेघमाया देवजी की यशश्वी गाथा ई. स. 1138 में महा सूद नोम के दिन जागृत, पवित्र गुर्जर धरा पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित हुई थी ।
जिस समय अणहिलपुर पाटण को राजधानी बनाई गई, उस समय गुजरात के सिंहासन पर विराजमान सिद्धराज जयसिंह के नेतृत्व में सोलंकी वंश की सफल एवं यशस्वी ध्वजा लहरा रही थी । नयनरम्य और उत्कृष्ठ स्थापत्य के निर्माणों के शौकिन महाराज सिद्धराज जयसिंहने अपने दादा दुर्लभराज द्वारा बनाया हुआ और लंबे समय से बिना पानी के सुखे पडे सरोवर के जीर्णोद्धार का फैसला किया । सरोवर व तालाब की खुदाई के लिए उस समय मालदेव के ओड समुदाय को विशेषज्ञ माना जाता था, जो बनासकांठा व राजस्थान के इलाकों में निवास करते थे । सिद्धराज जयसिंह ने ओड समुदाय के लोगों को सरोवर के नवीनीकरण, जिर्णोद्धार के लिए आमंत्रित किया ।

ओड मालदेव लोगों में एक सुंदर दिखने वाली परिणीता जसमा भी शामिल थी । सिद्धराज जयसिंह सरोवर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करने सरोवर पर जाते रहते थे । इस बीच सिद्धराज जयसिंह की नजर विवाहिता जसमा पर पड़ी और राजा सिद्धराज जसमा की और आकर्षित व मोहित हो गए और परिणित महिला जसमा को अपनी रानी बनाने के लिए अनेक प्रस्ताव भेजे । पतिव्रता जसमा ने राजा से आये प्रत्येक अनैतिक प्रस्ताव को ठुकरा दिया । हालाँकि सिद्धराज जयसिंह के प्रस्ताव जारी रहें। अपने समुदायकी एक परिणीता का स्वयं राजा द्वारा उत्पीड़न होता देख ओड समुदाय के लोगोने सरोवर की खुदाई को छोड़कर रात होते ही अपने वतन की और प्रस्थान किया ।
महाराज सिद्धराज जयसिंहको तुरंत सूचित किया गया कि ओड समुदाय के लोग काम छोड़कर वापस लौट रहे है । राजाने तुरंत ओड लोगो को वापस लाने के लिए सैनिकों को भेजा। सैनिकों ने ओड लोगो को रास्ते से पुनः वापिस लौटने को कहा परंतु स्वाभिमानि स्वभाव रखनेवाले ओड लोगोने वापिस लौटने का स्पष्टरूप से इनकार कर दिया। ओड लोगो के इनकार से क्रोधित सैनिकोंने जसमा के पति की निर्मम हत्या करदी और पति की निर्मम हत्या से दुःखी, व्यथित ओर क्रोधित जसमा को सिद्धराज जयसिंह के समक्ष पेश किया गया। क्रोधित जसमाने भरे दरबारमें सिद्धराज जयसिंह की उपस्थिति में अपने पास छूपाई हुई तेज धारदार कटार को अपने पेट मे घोंस दी और वीरगति को प्राप्त हुई। अपने जीवन की अंतिम सांस लेते हुए सती जसमा ने महाराज सिद्धराज जयसिंह को शाप देते हुए कहा कि, "हे ! राजन, तुने रक्षक होकर एक पतिव्रता स्त्री पर कुदृष्टि की है और मेरे निर्दोष पति की निर्मम हत्या की है इसलिए में एक पतिव्रता स्त्री तुझको शाप देती हुं कि तु जिस दुर्लभ सरोवर को बनवा रहा है उस दुर्लभ सरोवर में कभी भी पानी नहीं आएगा और तेरे राज्य के सभी जीव पानी के बिना तड़पेंगे। सती जसमा के शाप के कारण परम शिवभक्त सिद्धराज जयसिंह बहुत व्यथित हो गए और उन्होंने अपने पापों के प्रायश्चित के रूपमें गुजरात और सौराष्ट्र में कई शिव मंदिरों का निर्माण करवाया।

सती जसमा के शाप से परेशान होकर सिद्धराज जयसिंहने कई शिवमंदिरों का निर्माण करवाया, ईसी तरह 500 मील के दायरे में एक दुर्लभ सरोवर बनवाया और इसके किनारे 1000 शिवलिंगों को स्थापित किया। यह सरोवर सहस्त्रलिंग सरोवर के नाम से विख्यात है । शिवमंदिर में नित्य आरती होती थी और उस आरती में व्यथित, शापित हुए महाराज सिद्धराज जयसिंह भी स्वयं उपस्थित रहते थे । सती जसमा का शाप सत्यवचन था और सहस्त्रलिंग सरोवर में पानी आता ही नहीं था, जिस कारण पाटण में पानी की समस्या कायमी हो गई और सभी जीव बिना पानी के तड़पने लगें। उपर से राज्य में अकाल पडा जिससे सभी जीवों को पीने के पानी की परेशानी होने लगी।
जैन धर्मसे प्रभावित राजा अपने राज्य में जीवो की यह दशा देख नहीं पाए और सती जसमा के शाप के निवारण हेतु, शाप से सहस्त्रलिंग सरोवर को मुक्त कराने के लिए अपने प्रधान राज्यमंत्री मुंजाल द्वारा अनेक विद्वानों, धर्माचार्यो, ज्योतिषशास्त्र के निष्णांतो की सभा बुलवाई। अनेकविध चर्चा व शास्त्रों के अभ्यास के बाद उपाय बताया गया कि, सती जसमा के शाप से मुक्ति मीले और पाटण के जीवों को पर्याप्त पानी मिल सके व उनको भटकना न पड़े उसके लिए धरती माता एक बत्तीसगुणी पुरुष का बलिदान मांग रही है । यह सुनते ही राजा के साथ समग्र सभा स्तब्ध ओर अवाचक हो गई । महाराजने सभा में उपस्थित महानुभावो को बलिदान के लिए अग्रेसर होने को कहा । प्रजा की सुखाकारी के लिए टहेल दी परंतु कोई राजी नहीं हुआ, कोई आगे नहीं आया ।
सभा में से कोई तैयार न हुआ बाद में महाराज जयसिंह ने अपने समग्र राज्य में ढिंढोरा पिटवाया, सात दिनों तक पूरे गुजरात में यह ढिंढोरा पिटवाया गया परंतु कोई बलिदान देने के लिए आगे न आया सबको अपनी जान प्यारी थी । तब धोलका पंथक के छोटे से गाँव रनोडा में रहते बुनकर या वणकर समुदाय से माया नामक वीर पुत्र पाटण के प्यासे जीवों व मानवीओ के लिए बलिदान देने के लिए तैयार हुआ । बचपन से ही पिता घरमशी की छत्रछाया खोने के बाद दादा के संस्कारों की स्नेहछाया में पले - बढ़े मायाने अपने निर्णय की जानकारी अपनी माता गंगाबाई (खेतीबाई) और पत्नी हरखा (मरघा बाई) को दी एवं दादा सहित सब से यज्ञ की वेदी में बलिदान देने की अनुमति मांगी । अपने बेटे को परमार्थ बलिदान होने की अनुमति माता तथा दादा ने गौरव सहित दे दी तब माया की पत्नी ने भी सकारात्मक रवैया रखकर अनुमति दे दी ।
रनोडा गाँव तथा धोलका के निवासी मानवश्रेष्ठ एवं वीर मेघमाया को बाजे गाजे के साथ पाटण स्थित राजा के दरबार मे लेकर आए । पाटण के दरबार मे बैठे हुए कुछ जातिवादी मानसिकता रखनेवाले ब्राह्मणो और दरबारियों तथा नगरजन "मेघमाया" को देखते ही खड़े हो गए और कहने लगे कि, "यह मेघमाया तो बुनकर व वणकर समुदाय जाति का अछूत है इसका बलिदान धरती माता नहीं स्वीकार करेगी ।" यह सुनते ही महाराज सिद्धराज जयसिंहने सभा में उपस्थित विद्वान ज्योतिषियों की ओर देखा । ज्योतिषी मेघमाया के मुख पर के तेज को जान गए और पूरी सभा मे एक स्वर में जोर से कहा कि, "हे राजा, जीवमात्र के लिए प्राण न्योछावर करनेवाला वीर मेघमाया अछूत नहीं है, वो तो हम सभी का गुरु है, बत्तीसगुणी वीर है और इस नरवीर का बलिदान धरती माता अवश्य स्वीकार करेंगी।" बलिदान के लिए सिद्धराज जयसिंह ने जब मेघमाया की ओर देखा और पूछा तब जन्मजात निडर, निर्भय और तेजस्वी ऐसे मेघमाया ने राजा को नम्रता से उत्तर दिया,
"हे महाराज अन्नदाता ! मेरे जीवन के बलिदान से प्यासे जीवो, मानवो को पानी मिले तो यह मस्तक हाजिर है परंतु आपसे नतमस्तक पूर्वक एक अरज है ।"
महाराज सिद्धराज जयसिंहने कहा, "बोल वीर मेघमाया बोलो भय और संकोच के बिना बोलो..."
तब वीर मेघमाया ने गर्वसे सीधे शरीर से अपना सिर झुकाया और कहा, "महाराज ! हमारे समुदाय को बहुत दुःख है, हम गरीब है और हम पर छुआछूत का कलंक लगा हुआ है जिसे दूर कीजिये, हमारे समाज पर के बंधनों को मुक्त कर नगर में निवास, आँगन में तुलसी का पौधा, पीपल की छाँव, उत्तम वस्त्र धारण करने की आज़ादी, वेल - वंशावली के लिए वहीवंचा बारोट सहित स्वाभिमान से जीवन जीने के लिए समान अधिकार दीजिए ।" यह कहते हुए, वीर मेघमाया ने महाराज सिद्धराज जयसिंह को नमन किया ।
विक्रम संवत 1172 महा सूद सातम की सुबह ढोल, शहनाई की रमझट के बीच मे और नगरजनों की अबीर-गुलाल, पुष्पवर्षा के साथ वीर मेघमाया के बलिदान शोभायात्रा निकली जिसमे स्वयं महाराज सिद्धराज जयसिंह, नगर शेठ, ब्राह्मणों, ज्योतिषाचार्यों, धर्मगुरुओं तथा हजारो नगरजनों का समुद्र "वीर मेघमाया की जयकार" करते, सती जसमा ओडण के शाप को मिटाने, पाटण नगर के मानवों व जीवों को बचाने, शास्त्रोक्त मंत्रोच्चार के साथ वीर मेघमाया के सहस्त्रलिंग सरोवर में कदम रखते ही भगवान के आशीर्वाद स्वरूप बारीश हुई और सहस्त्रलिंग सरोवर में पाताल में से अमृत समान पानी प्रवाहित हुआ और इस पानी मे परोपकारी, वीर मेघमाया ने समाधि ले ली ।
भारतीय समाज मे तथाकथित अछुतो को अधिकार दिलानेवाले सर्व प्रथम वीर मेघमाया थे तथा अब तक इतिहास को देखते हुए, अछूत कहेजानेवाले समाज के अधिकारों के लिए अपने जीवन का बलिदान करनेवाले एक मात्र वीर मेघमाया देव ही है।
पाटण का सहस्त्रलिंग सरोवर आज भी बुनकर, वणकर समुदाय की अस्मिता, गौरव, आस्था, श्रद्धा एवं शौर्य के प्रतीक ऐसे परोपकारी जीवमात्र के जीवन को बचाने अपने जीवन का बलिदान देनेवाले वीर मेघमाया के बलिदान का साक्षी बनकर खड़ा है ।
बुनकर, वणकर समुदाय के बुजुर्गों द्वारा वीर मेघमाया के बलिदान की स्मृति पीढ़ी - दर - पीढ़ी दी जाती है। वीर मेघमाया का बलिदान पूरे देश मे अमर है । परोपकारी, नीडर, निर्भय, तेजस्वी, अडिग ऐसे वीर मेघमाया का बुनकर, वणकर समाज अतूट श्रद्धा व आस्था से पूजन करता हैं । वीर मेघमाया के बलिदान के गौरवमय इतिहास का सदा जतन हो, उनकी स्मृतियाँ हमेंशा बनी रहे उसके लिए पाटण के गुजरात बुनकर, वणकर समाज संलग्न "वीर माया स्मारक समिति" के अविरत प्रयासों से वीर मेघमाया के बलिदान स्थान पर भव्य स्मारक परिसर स्थापित किया जा रहा हैं । जिसके लिए गुजरात सरकार द्वारा 3 करोड़ रुपये भी आवंटित किये गए है । प्रस्तावित परिसर में वीर माया स्मृति मंदिर, अनुसंधान केंद्र, पुस्तकालय, अतिथि भवन, बाल क्रीड़ांगण, गुरुकुल तथा वीर मेघमाया की यशश्वी गाथा दर्शाता हुआ ध्वनि प्रकाश शो(Light and sound show) का भी आयोजन किया गया है ।
- © देवेन्द्र कुमार