गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय




भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई हैं। इनमें से, संसद और सर्वोच्च न्यायालय का अत्यधिक महत्व है, जिनमें से प्रत्येक को कानून के शासन को बनाए रखने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए अलग-अलग शक्तियाँ प्राप्त हैं। हालाँकि, इस ढांचे का एक मूलभूत सिद्धांत न्यायपालिका की स्वतंत्रता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि उसके निर्णय अंतिम और बाध्यकारी हों। यहाँ इस बात का सार निहित है कि संसद भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को क्यों नहीं पलट सकती।

न्यायिक समीक्षा आधुनिक लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है, जो जाँच और संतुलन के सिद्धांत को मूर्त रूप देती है। यह एक ऐसा तंत्र है जिसके माध्यम से न्यायालय सरकारी कार्यों की वैधता और संवैधानिकता की जाँच करते हैं, तथा संविधान में निहित मौलिक सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित करते हैं। यह लेख न्यायिक समीक्षा के सार, इसके ऐतिहासिक विकास, समकालीन लोकतंत्रों में महत्व और कानून के शासन और संवैधानिकता की रक्षा में इसकी भूमिका पर गहराई से चर्चा करने का प्रयास करता है।

भारत का संविधान संसद और सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और कार्यों को अलग-अलग परिभाषित करता है, जिससे दोनों संस्थाओं की स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है। संसद जहाँ कानून बनाती है और लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है, वहीं सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करता है और विवादों का निपटारा करता है, तथा न्याय के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। शक्तियों का यह पृथक्करण अधिकार के नाजुक संतुलन को बनाए रखने और किसी एक इकाई को अत्यधिक प्रभाव डालने से रोकने में महत्वपूर्ण है।

न्यायिक समीक्षा के मूल में विधायी और कार्यकारी कार्यों की जांच करना शामिल है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हैं। यह सरकारी अतिक्रमण को रोकने, व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने और कानून के शासन को बनाए रखने के लिए एक तंत्र के रूप में कार्य करता है। न्यायिक समीक्षा के माध्यम से, न्यायालय संविधान की व्याख्या करते हैं, सरकार की शाखाओं के बीच संघर्षों को सुलझाते हैं और सार्वजनिक अधिकारियों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हैं।

संविधान में निहित न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धांत यह गारंटी देता है कि न्यायपालिका बाहरी दबावों या हस्तक्षेप से मुक्त होकर काम कर सकती है। सर्वोच्च न्यायिक निकाय के रूप में सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने और कानूनों और सरकारी कार्रवाइयों की वैधता की समीक्षा करने के लिए अपने अधिकार का प्रयोग करता है। इसके निर्णय सभी निचली अदालतों और सरकारी निकायों पर बाध्यकारी होते हैं, जिससे पूरे देश में कानून का एक समान अनुप्रयोग स्थापित होता है।

न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून या कार्यकारी कार्रवाई को अमान्य करने का अधिकार देता है। यह शक्ति विधायी या कार्यकारी अतिक्रमण के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है, यह सुनिश्चित करती है कि संविधान में निहित अधिकार और स्वतंत्रता सुरक्षित हैं। संविधान की सर्वोच्चता को कायम रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय कानूनी विवादों के अंतिम मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है, जो भारतीय लोकतंत्र में कानून के शासन को मूर्त रूप देता है।

इसके विपरीत, संसद, विधायी अधिकार से संपन्न होने के बावजूद, संविधान द्वारा स्थापित ढांचे के भीतर काम करती है। इसकी शक्तियाँ निरपेक्ष नहीं हैं और संविधान के प्रावधानों के अधीन हैं, जिसमें मौलिक अधिकारों और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत शामिल हैं। जबकि संसद मौजूदा कानूनों में संशोधन कर सकती है या नए कानून बना सकती है, लेकिन वह ऐसा कानून पारित नहीं कर सकती जो संविधान का उल्लंघन करता हो या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता हो।

शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत यह निर्धारित करता है कि संसद न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सकती या उसके निर्णयों को पलटने का प्रयास नहीं कर सकती। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को पलटने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र और कानून के शासन के मूलभूत सिद्धांतों को कमजोर करेगा। इसके अलावा, ऐसी कार्रवाइयों से न्यायपालिका में जनता का भरोसा खत्म होगा और देश का संवैधानिक ढांचा कमजोर होगा।

यह पहचानना ज़रूरी है कि संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच संबंध उनके संबंधित प्रभाव क्षेत्रों में परस्पर सम्मान और सहयोग का है। संसद जहाँ सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कानून बनाती है, वहीं सुप्रीम कोर्ट यह सुनिश्चित करता है कि ये कानून संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करें और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करें। यह पूरक संबंध भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की ताकत और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।

निष्कर्ष में, यह धारणा कि संसद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को पलट सकती है, संवैधानिकता और न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांतों के विपरीत है। शक्तियों का पृथक्करण, संविधान की सर्वोच्चता के साथ मिलकर, सर्वोच्च न्यायालय को कानूनी मामलों पर अंतिम प्राधिकारी के रूप में स्थापित करता है। न्यायपालिका की अखंडता को बनाए रखना कानून के शासन को बनाए रखने और सभी नागरिकों के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए सर्वोपरि है।

 

गुरुवार, 5 सितंबर 2024

एक बार में कई लक्ष्य भेदनेवाला भारत का मिसाईल जिससे डरा चीन


 

भारतने अपना मल्टीपल इंडिपेन्डेन्टली टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल (MIRV) बना लिया है. इस मिसाइल का अंतिम सफल परीक्षण 11 मार्च 2024 में ओडिशा के तट पर किया गया था. इस मिसाईल से चीन के सुरक्षा विशेषज्ञो में काफी चर्चा हो रही है जिस चर्चा का सूर भारत की बढती शक्ति और चीन का डर दर्शाता है.  

मल्टीपल इंडिपेन्डेन्टली टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल (MIRV) तकनीक का पहला सफल परीक्षण अमेरिकाने 1970 में किया था. अमेरिकाने एक इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) को MIRV तकनीक के साथ तैनात किया था. यह वो समय था जब विश्व अमेरिका और सोवियेत संघ (USSR) के सहयोगी देश ऐसे दो गुट में बंटा हुआ था और अमेरिका और सोवियेत संघ (USSR) दोनो के बीच शस्त्रो की होड लगी हुई थी. अमेरिकाने अपनी तकनिकी सर्वोपरिता को दर्शाते हुए 1971 में एक MIRVed सबमरीन-लॉन्च्ड बैलिस्टिक मिसाइल (SLBM) भी तैनात कर दी. अब सोवियत संघ चूप रहेने वाला नही थी सोवियेत संघने भी ताबडतोब इस तकनीक को डवलप कर लिया और 1970 के दशक के अंत तक अपनी ICBM और SLBM तकनीक में MIRV का उपयोग करना आरंभ भी कर दिया. वर्तमान में इन दो देशों के अतिरिक्त ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के पास भी MIRV तकनीक है.

क्या है मल्टीपल इंडिपेन्डेन्टली टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल (MIRV) तकनीक?

'मल्टीपल इंडिपेंडेंटली टार्गेटेबल री-एंट्री व्हीकल' (Multiple Independently targetable Reentry Vehicle (MIRV) एक ऐसी तकनीक है जिसका उपयोग करके एक ही मिसाइल में कई वारहेड लगाए जा सकते हैं इतना ही नही प्रत्येक वारहेड को अलग-अलग लक्ष्य को भेदने के लिए निर्देशित भी किया जा सकता है. ये वारहेड एक ही स्थान पर भी अलग-अलग समय पर गिराए जा सकते हैं. इन वारहेड्स में डिकॉय भी शामिल हो सकते हैं. डिकॉय का मतलब है कि ये हथियार दुश्मन को गुमराह करने के लिए बनाए जाते हैं. 

भारत के वैज्ञानिक वर्ष 2012 से MIRV तकनीक पर काम कर रहे थे. इस तकननीक को पहले अग्नि-6 मिसाइल के लिए बनाया जा रहा था, परंतु बाद में इसे अग्नि-5 मिसाइल पर लगाया गया. अमेरिका पहला देश था जिसने MIRV तकनीक बनाई थी. 

भारत को क्यों बनाना पडा अग्नि-5 मिसाइल?

वर्तमान परिप्रेक्ष्य से देखे तो भारत को सबसे बडी चुनौती चीन से है और चीन लगातार अपने शस्त्रो को बढा रहा है, अपग्रेड कर रहा है इस को देखते हुए भारत को भी अपनी शक्ति बढानी आवश्यक है.अग्नि-5 मिसाइल का मुख्य उद्देश्य भी चीन के विरुद्ध भारत की परमाणु क्षमता को बढ़ाना है. अग्नि-मिसाइलसे पहले भारत के पास सबसे लंबी दूरी वाली मिसाइल अग्नि-3 थी और अग्नि-3 की रेंज 3500 किमी थी. अग्नि-3 की रेंज को देखते अगर अग्नि-3 को मध्य भारत से दागा जाता है तो चीन के पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में स्थित लक्ष्यों तक पहुंचने में सक्षम नही है. चीनने अपने प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों को भारत की मिसाइलों की रेंज से दूर विकसित किया है जो उसके  पूर्वी समुद्र तट पर स्थित हैं. अग्नि-5 मिसाइल की रेंज 5000 किलोमीटर है और अग्नि-5 की रेंज में बीजिंग सहित चीन के अनेक प्रमुख स्थान आ जाते है. भारत के पास अग्नि श्रेणी के अग्नि-1 से अग्नि-5 तक कई तरह की अग्नि मिसाइलें हैं. इनकी रेंज अलग-अलग है., अग्नि-1 कम दूर तक मार करने वाली बेलेस्टिक मिसाइल है जिसकी रेंज 700 किमी से अधिक है. अग्नि-2 भारत की मध्यम दूरी तक मार करनेवाली मिसाइल है और उसकी रेंज 2000 से 5000 किमी तक है. अग्नि-3 यह भारत की मध्यम दूरी कि मिसाइल है जिसकी रेंज 3500 किमी से ज्यादा है. अग्नि-पी (अग्नि प्राइम), इस मिसाइल की रेंज 1000 से 2000 किमी तक है, इस मिसाइल की बडी खासियत यह है कि यह मिसाइल सड़क और रेल प्लेटफार्म से लॉन्च की जा सकती है, जिससे इसे तेजी से तैनात और लॉन्च करना आसान हो जाता है. अब आती है अग्नि-5, यह मिसाइल भारत की लंबी दूरी तक सटिक लक्ष्य भेदनेवाली मिसाइल है और इस मिसाइल की रेंज 5000 किमी तक है. अग्नि-6, भारत की पहेली इन्टर कोन्टिनेन्टल बैलेस्टिक मिसाइल है और इसकी रेंज 7000 किमी से ज्यादा है.  


 

क्या है अग्नि-5 मिसाइल की खासियते?

अग्नि-बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) की कैटेगरी में आती है और उसकी रेंज 5 हजार किमी हैअग्नि-5 में MIRV तकनीक होने के कारण अग्नि-5 बहुत घातक बन जाती है क्यों कि इस तकनीक कि वजह से अग्नि-5 मिसाइल एक ही वार में अनेक लक्ष्यों को भेद सकती है, और यह सब से बडा कारण है कि दुश्मन के लिए अग्नि-5 मिसाइल एक बड़ा खतरा बन जाती है. अग्नि-5 मिसाइलमें खास गाइडेंस और नेविगेशन सिस्टम भी लगाए गये हैं जो इसे सटीक जगह पर लक्ष्य साधने में सहाय करते हैं.

MIRV तकनीक को मुख्य रूप से हमला करने की ताकत बढ़ाने के लिए डिजाइन किया गया था, न कि बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को हराने के लिए. इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ही मिसाइल में कई वारहेड लगाए जा सकते हैं. इसका अर्थ है कि एक ही मिसाइल से अलग-अलग लक्ष्यों पर हमला किया जा सकता है, जिससे दुश्मन के लिए इसे रोकना अत्यंत कठिन हो जाता है.

एक साधारण मिसाइल की तुलना में अग्नि-5 को रोकना सरल नहीं होता है, क्योंकि साधारण मिसाइल में सिर्फ एक वारहेड होता है, जबकि अग्नि-5 में एक से ज्यादा वारहेड्स लगाए जा सकते हैं. ये वारहेड्स न केवल अलग-अलग स्पीड से बल्कि अलग-अलग दिशाओं में छोड़े जा सकते हैं. जब एक मिसाइल कई वारहेड्स को छोड़ती है, तो दुश्मन के डिफेंस सिस्टम को सभी वारहेड्स को एक साथ रोकने के लिए तैयार रहना पड़ता है, जो कि बहुत कठिन होता है. 

भारत कि अग्नि-5 मिसाइल से डरा चीन 

मार्च 2024 में जब अग्नि-5 का सफल परीक्षण किया गया उसके बाद चीन का बयान सामने आया था चीन ने बताया कि अग्नि-5 की रेंज 5000 किमी नहीं अपितु 8 हजार किमी से भी ज्यादा है. 

चीन के विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता का बयान आया था कि चीन और भारत बड़े विकासशील देश हैं. हमें दोनों पक्षों को वर्तमान में अच्छे संबंधों को संजोना चाहिए. इससे क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने में सकारात्मक योगदान होगा. मिसाइल का परीक्षण भारत के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है. इससे पता चलता है कि भारत उन देशों में शामिल हो गया है जिनके पास बैलिस्टिक मिसाइलें हैं. लेकिन असल में यह कोई खतरा नहीं है. भारत को चेतावनी दी कि अपनी ताकत को अधिक आंकना नहीं चाहिए.

इसके बाद उन्होंने यह भी दावा किया कि हालांकि भारत के पास ऐसी मिसाइलें हो सकती हैं जो चीन के किसी भी हिस्सों तक पहुंच सकती हैं, लेकिन भारत का चीन के साथ बाकी आम हथियारों की दौड़ में कोई मौका नहीं है.

वहीं चीनी विशेषज्ञों के सरकारी चैनल सीसीटीवी पर कहा कि अग्नि-5 मिसाइल वास्तव में 8000 किलोमीटर तक जा सकती है. भारत सरकार ने जानबूझकर मिसाइल की क्षमता को कम करके बताया है. इसका कारण अन्य देशों को चिंता न हो इसलिए है. 

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

संसद में क्यों नही ले सकते अडानी-अंबानी का नाम?

प्रतिकात्मक चित्र

सदन में बजट 2024 पर बहस चल रही है, इस बहस में राहुल गांधी ने अपने भाषण में केंद्र सरकार पर जमकर निशाना साधते हुए चक्रव्यूह का उल्लेख करते हुए छ: लोगों के नाम लिए जिनमें अंबानी और अडानी के नाम भी शामिल थे. राहुल गांधी को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने उन्हें टोकते हुए याद दिलाया कि आप उसका नाम नहीं ले सकते हैं जो फिलहाल सदन का सदस्य नहीं है.

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर राहुल गांधी के सदन में अंबानी -अडानी या किसी और का नाम लेने पर आपत्ति क्यों ? संसद में  किसका नाम नहीं ले सकते ? क्या कहता है नियम ?

क्यों नहीं ले सकते उनके नाम जो सदन के सदस्य नहीं है ?

नियम 380: लोकसभा के प्रक्रिया और  कार्य संचालन के नियम 380 (निष्कासन) के अनुसार अगर अध्यक्ष का मानना है कि बहस के दौरान कुछ ऐसे शब्दों या नाम के इस्तेमाल हुआ जो अशोभनीय या अपमानजनक या असंसदीय हैं तो अध्यक्ष अपने विवेक के अनुसार उन शब्दों को सदन की कार्यवाही से निकालने का आदेश दे सकता है. इस प्रक्रिया को एक्सपंक्शन कहते हैं.

इसके अलावा भारतीय संसद के सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में भाषण के दौरान किसी बाहर के व्यक्ति का नाम लेने पर पाबंदी होती है. यह पाबंदी संसदीय नियमों और प्रक्रियाओं के तहत लगाई गई है.

नियम 352: "लोकसभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमावली" के नियम 352 में कहा गया है कि कोई भी सदस्य किसी व्यक्ति का नाम तब तक नहीं ले सकता है जब तक वह व्यक्ति संसद की कार्यवाही का हिस्सा नहीं हो. ठीक इसी तरह, राज्यसभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमावली के तहत भी इस प्रकार के प्रावधान होते हैं. है. इसके अलावा उस सदस्य का नाम भी तब ही लिया जा सकता है जब उससे जुड़ी जानकारी प्रमाणित और सत्यापित हो.  

ऐसे में अगर किसी व्यक्ति का नाम बिना किसी प्रमाण या तथ्य के लिया जाता हैं तो यह संसद के नियमों का उल्लंघन माना जाएगा. इन नियमों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संसद की कार्यवाही मर्यादित और उद्देश्यपूर्ण रहे, और बाहर के व्यक्तियों का नाम लेकर बहस को अनावश्यक विवादों से दूर रखा जाएगा. 

नियम 353: संसद में अगर किसी सांसद को भाषण के दौरान किसी व्यक्ति पर आरोप लगाना है भी "लोकसभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमावली" के नियम 353 के तहत सभापति या अध्यक्ष को उस व्यक्ति के बारे में पहले से ही सूचना देनी होती है और अगर सभापति या अध्यक्ष इसकी अनुमति देते है तभी उन पर आरोप लगाया जा सकता है. 

संसद में भाषण देते समय सदस्य को किस नियमों को ध्यान में रखना चाहिए?

लोकसभा की रूल बुक में नियम 349 से लेकर नियम 356 तक इस बात का विस्तार में जिक्र है कि संसद में भाषण के दौरान किन बातों का ध्यान रखना है, या किन बातों का जिक्र नहीं किया जाना चाहिये है.

नियम 349(1): इस नियम के अनुसार सदन में भाषण देते हुए किसी भी ऐसे किताब, अखबार या पत्र को पढ़ा या इसका जिक्र नहीं किया जा सकता , जिसका सदन की कार्यवाही से कोई लेना देना न हो. 

नियम 349(2): इस नियम के तहत किसी भी सदस्य के भाषण के वक्त शोर- शराबा या किसी भी तरीके से बाधा नहीं डाली जा सकती.

नियम 349(12): यह नियम कहता है कि कोई भी सदस्य स्पीकर की कुर्सी की तरफ पीठ करके न बैठ सकता है और न ही खड़ा हो सकता है. 

नियम 349(16): इसी रूल बुक का यह कहता है कि सदन में कोई भी सदस्य किसी भी झंडा, प्रतीक प्रदर्शित नहीं करेगा. राहुल गांधी की तरफ से हाल ही में भगवान शिव की तस्वीर दिखाने पर स्पीकर ओम बिरला ने इसी नियम का हवाला दिया था.

यह सारे नियम है जिसको ध्यान में रखकर सदन के दोनों सदस्यो को अपना भाषण देना होता है.  यह वो नियम है जिसके तहत कोइ भी सदस्य ऐसे व्यक्तो या व्यक्तोयों के नाम नही ले सक्ते जो सदन के सदस्य नही है. 

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

भारतीय विदेश नीति : अर्थ,उद्देश्य,विशेषताएं


 विदेश नीति का अर्थ

विदेश नीति एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जहां विभिन्न कारक (विभिन्न देश) विभिन्न स्थितियों में अलग-अलग प्रकार से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक देश की सरकार अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए, अन्य राज्यों से संबंध स्थापित करने व अंतर्राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिए कुछ निश्चित उद्देश्य के आधार पर जो नीति निर्धारित करता है, वह उस देश की विदेश नीति कहलाती है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

किसी भी देश की विदेश नीति एक विशेष आंतरिक एवं बाहरी वातावरण के स्वरूप द्वारा काफी हद तक निर्धारित होती है। इसके अतिरिक्त उसका इतिहास, विरासत, व्यक्तित्व, विचारधाराएं, विभिन्न संरचना आदि का प्रभाव उस पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्यों के निर्धारण एवं सिद्धांतों के प्रतिपादन में भी इन्हीं बहुमुखी तत्वों का योगदान रहा है।
भारत की विदेश नीति की समझ एवं आकलन हेतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं स्वाधीनता संग्राम के इतिहास पर प्रकाश डालना अति आवश्यक है। इस काल में होने वाले घटनाक्रमों के आधार पर ही स्वतंत्र भारत की विदेश नीति का विकास हुआ है। स्वतंत्र भारत की विदेश नीति की जड़े उन प्रस्तावों व नीतियों में ढूंढी जा सकती हैं, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी स्थापना के पश्चात् के 62 वर्षों (1885-1947) में महत्वपूर्ण विदेश नीति के विषयों पर अपनाई थी। यह सत्य है कि पराधीन भारत की विदेश नीति का निर्माण 1885 में स्थापित इंडिया हाउस, लंदन में होता था। अंग्रेज अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करते थे। लेकिन फिर भी भारत अंतर्राष्ट्रीय कानून के रूप में अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति का दर्जा प्राप्त कर चुका था तथा कई विषयों पर कांग्रेस की प्रतिक्रियाओं के न केवल सकारात्मक परिणाम निकले, बल्कि स्वतंत्र भारत की नीतियों हेतु ठोस आधार भी तैयार हो गया था। इसी आधार पर पराधीन भारत को अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी प्राप्त होने लगी। इसके परिणाम स्वरूप ही भारत संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था का 1945 में प्रारंभिक सदस्य बन सका।

भारतीय विदेश नीति के उद्देश्य

प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हेतु विदेश नीति के उद्देश्य तय करते हैं। भारत की विदेश नीति ने भी अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप विभिन्न उद्देश निर्धारित किए हैं। इन उद्देश्यों का विवरण निम्नलिखित है –
1) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए प्रत्येक संभव प्रयत्न करना।
2) अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाए जाने की नीति को प्रोत्साहन देना।
3) सभी राज्य और राष्ट्रों के बीच परस्पर सम्मानपूर्ण संबंध बनाए रखना।
4) अंतरराष्ट्रीय कानूनों के प्रति और विभिन्न राष्ट्रों के पारस्परिक संबंधों में संधियों के पालन के प्रति आस्था बनाए रखना।
5) सैनिक गुटबंदिओं और सैनिक समझौतों से अपने आप को पृथक रखना तथा ऐसे गुटबंदिओं को प्रोत्साहन न देना।
6) उपनिवेशवाद का कठोर विरोध करना, चाहे वह किसी भी रूप में हो।
7) सभी प्रकार की साम्राज्यवादी भावना का विरोध करना।
8) उन देशों के जनता की सक्रिय सहायता करना जो उपनिवेशवाद, जातिवाद और साम्राज्यवाद से पीड़ित हों।

भारतीय विदेश नीति के निर्धारक तत्व

(1) भूगोल : नेपोलियन बोनापार्ट का यह वाक्य महत्वपूर्ण है कि “किसी देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है।” भारत के संबंध में यह तत्व पूर्णतया सत्य है। क्योंकि प्रकृति ने भारत को एशिया महाद्वीप के दक्षिण में हिंद महासागर पर अरब प्रायद्वीप और हिंद चीन प्रायद्वीप के मध्य केंद्रीय स्थिति प्रदान की है। इसकी सीमाएं सभी दक्षिण एशियाई देश तथा पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार एवं मालद्वीप से जुड़ी है। यह स्थिति सामरिक एवं व्यवहारिक स्थिति से महत्वपूर्ण है। इसकी उत्तर सीमा से रूस, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान नजदीक है। अतः भारत को दोनों साम्यवादी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना आवश्यक है। पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति अमेरिका के लिए सैनिक दृष्टि से अनुकूल है। अतः अमेरिका का पाकिस्तान की तरफ एकतरफा झुकाव न हो और एशिया में पाकिस्तान भारत के बीच शक्ति संतुलन बना रहे, इसके लिए भारत को अमेरिका से अच्छे संबंध बनाये रखना है।

(2) ऐतिहासिक अनुभव, परंपराएं एवं संस्कृति : आधारभूत रूप से किसी देश की विदेश नीति उसके तत्कालीन ऐतिहासिक अनुभवों, परंपराओं, और संस्कृति से निर्धारित होती है। भारत की विदेश नीति में इन अनुभवों और परंपराओं के साथ-साथ भारतीय दर्शन के अनुसार भारतीय परंपराओं में राजनीतिक शक्ति का एक आदर्शात्मक स्वरुप उजागर होता है, जिसमें शांति सहयोग और वसुधैव कुटुंबकम् रूपी अंतरराष्ट्रीय वाद का आदर्श रूप दिखाई पड़ता है। भारतीय संस्कृति साम्राज्यवाद और जातिवाद के घोर विरोधी ‘जियो और जीने दो’ के शांति के विचारों का समन्वित रूप विदेशनीति में विरासत के रुप में सम्मिलित है।

(3) राष्ट्रीय हित – प्रत्येक देश की विदेश नीति राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है। राष्ट्रीय हित में इन सभी बातों का योग होता है, जो किसी राष्ट्र की संस्कृति, सुरक्षा और भौतिक कल्याण की अधिकतम गारंटी पर बल देता है। यह सत्य है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति सदा चलायमान रही है, उसमें कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होते। यह सभी राष्ट्रीय हित को देखते हुए बनते और बिगड़ते रहते हैं। स्थायी तत्व के्वल राष्ट्रीय हित होता है, जिसके लिए ही विभिन्न प्रकार का राजनीतिक ताना-बाना बुना जाता है।

(4) राष्ट्रीय सुरक्षा – प्रत्येक देश की विदेश नीति का लक्ष्य देश की सुरक्षा और विकास होता है। सैनिक दृष्टि से दुर्बल राष्ट्र भी अधिक समय तक अपनी स्वतंत्रता नहीं बनाए रख सकता है। भारत के संदर्भ में यह सत्य सटीक बैठता है। भारत के सैनिक दुर्बलता और राज्यों के बीच वैमनस्यता के कारण ही उसे मंगोलो, सिकंदर और अंग्रेजों की सैनिक शक्ति के सामने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखना पड़ा था। स्वतंत्रता के बाद भी भारत सैनिक दृष्टि से सफल राष्ट्र नहीं था। इसीलिए भारत की विदेश नीति में सभी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने और अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए असंलग्नता की नीति को अपनाया है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शीत युद्ध के चलते नित्य बदलते राजनीतिक समीकरण और गुटबंदियों के चलते भारतीय विदेश नीति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता, सुरक्षा के लिए समयानुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पुनः निर्धारण की प्रक्रिया अपनाती रहती है। जैसे पहले अमेरिका से संबंध बहुत खराब थे, किंतु अब मधुर संबंध बन गए हैं, और वह आण्विक सहयोग भी देने को तैयार है।

(5) आर्थिक विकास – आधुनिक समय में राष्ट्रीय आर्थिक विकास राष्ट्रों के जीवन का महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। हर राष्ट्र की आंतरिक नीति आर्थिक जीवन स्तर को ऊंचा उठाते हुए उसके माध्यम से समृद्ध राष्ट्र बनाना रहता है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग उद्योग, उत्पादन, निर्यात पर है, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व तकनीकी सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, ऐसी स्थिति में संपन्न और पूंजीवादी राष्ट्र इस तरह के सहयोग के बहाने देश की आंतरिक एवं विदेश नीति को प्रभावित करने हेतु सहायता के मुख्य द्वार खोलने को तैयार रहते हैं।

(6) अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सद्भाव को बढ़ावा – भारतीय संस्कृति एवं परंपराऐं सदैव वसुधैव कुटुंबकम के भेद वाक्य को आधार बनाकर अपनी विदेश नीति को विश्व शांति सुरक्षा और सद्भाव को लक्ष्य लेकर चलती हैं। मार्च 1953 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यही कहा था कि “हम विश्व शांति के पक्षधर हैं और शांति की स्थापना के लिए यदि भारत कुछ कर सके तो उसे करने का हम भरसक प्रयत्न करते रहेंगे।” इस नीति के द्वारा भारत का सदैव यह प्रयास रहा है कि विश्व राष्ट्रों के मध्य ऐसी स्थितियां न पैदा हो जायें, जिससे अंतरराष्ट्रीय तनाव और अशांति का वातावरण बने और सारा विश्व तनाव ग्रस्त हो जाये। इसीलिए भारत अपनी नीति में आचरण के पांच नैतिक सिद्धांत पंचशील को प्रमुख आधार बनाते हुए शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को अपनाने के लिए विश्व राष्ट्र का सम्मान करता आ रहा है।

(7) आधुनिक तकनीकी प्रभाव – हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, जहां तकनीकी ज्ञान के निरंतर विकास ने हमारी सोंच और गतिविधियों को प्रभावित कर दिया है। प्रत्येक राष्ट्र अपने आर्थिक विकास के लिए अत्याधुनिक तकनीक अपनाना चाहता है। अर्धविकसित और विकासशील राष्ट्र विश्व के विकसित देशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। फलस्वरूप ऑटोमेटिक इलेक्ट्रिक पावर, रेडियो एक्टिव आइसोटोप, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, स्पीकर के आधुनिक उपकरण उपग्रह प्रणाली पर एकाधिकार रखने वाले देश इन जानकारियों को स्थानांतरण व प्रयोग की अनुमति के लिए शर्त रख कर अन्य विकसित और विकासशील देशों की विदेश नीति को प्रभावित कर रहे हैं।

प्रचार और प्रसारण के माध्यम से व्यक्ति और समाज दोनों के चिंतन और राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संबंध घटनाओं पर जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इनके द्वारा किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति का विश्लेषण राष्ट्रों के मध्य संबंधों को बिगाड़ने और सुधारने का रहता है। आज विदेश नीति के ऊपर इनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

 

भारतीय विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं या सिद्धांत

1) गुटनिरपेक्षता की नीति : गुटनिरपेक्षता की नीति भारत की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू एवं केंद्र बिंदु है। इसकी घोषणा स्वतंत्रता से पूर्व ही अंतरिम सरकार के उपाध्यक्ष के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रथम रेडियो भाषण के रूप में 7 सितंबर 1946 को ही कर दी थी।
गुटनिरपेक्षता क्या है ? इसका अर्थ है कि भारत वर्तमान विश्व राजनीति के दोनों गुटों में से किसी गुट में भी शामिल नहीं होगा, किंतु गुटों से अलग रहते हुए भी उनसे मैत्री संबंध कायम रखने की चेष्टा करेगा और उनकी बिना शर्त सहायता से अपने विकास में तत्पर रहेगा। इसका उद्देश्य किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच संतुलन का निर्माण करना है। असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने आप को दूर रखती है, किंतु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है। यह गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता, अप्रगतिशीलता अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है। इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो सही और न्याय संगत है उसकी सहायता और समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्याय संगत है उसकी आलोचना एवं निंदा करना। अमेरिकी सीनेट में बोलते हुए नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि “यदि स्वतंत्रता का हनन होगा, न्याय की हत्या होगी अथवा कहीं आक्रमण होगा, तो वहां हम न तो आज तटस्थ रह सकते हैं और न भविष्य में तटस्थ रहेंगे।”

गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने के कारण:

1. किसी भी गुट में शामिल होकर अकारण ही भारत विश्व में तनाव की स्थिति पैदा करना उपयुक्त नहीं मानता।
2. भारत अपने विचार प्रकट करने की स्वाधीनता को बनाए रखना चाहता है। उसने किसी गुट विशेष को अपना लिया तो उसे गुट के नेताओं का दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा।
3. भारत अपने आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को और अपनी योजनाओं की सिद्धि के लिए विदेशी सहायता पर बहुत कुछ निर्भर है। गुटनिरपेक्षता की नीति से सोवियत रूस और अमेरिका दोनों से एक ही साथ सहायता मिल पा रही है।
4. भारत की भौगोलिक स्थिति गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने को बाध्य करती है। साम्यवादी देशों से हमारी सीमाएं टकराती हैं। अतः पश्चिमी देशों के साथ गुटबंदी करना विवेक सम्मत नहीं। पश्चिमी देशों से विशाल आर्थिक सहायता मिलती है। अतः साम्यवादी गुट में सम्मिलित होना भी बुद्धिमानी नहीं।

2) पंचशील को अपनाना : पंचशील के पांच सिद्धांत का प्रतिपादन भी भारत की शांति का द्योतक है। 1954 के बाद से भारत की नीति को पंचशील के सिद्धांतों ने एक नई दिशा प्रदान की है। पंचशील से अभिप्राय आचरण के पांच सिद्धांत। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में यह व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं, उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के संबंध निश्चित किए गए। यह सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
1. एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना।
2. एक दूसरे पर आक्रमण न करना।
3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
4. परस्पर सहयोग और लाभ को प्रोत्साहित करना।
5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।

3) मैत्री और सह-अस्तित्व की नीति : भारत की विदेश नीति मैत्री और सह-अस्तित्व पर जोर देती है। भारत की धारणा रही है कि विश्व में परस्पर विरोधी विचारधारा में सह-अस्तित्व की भावना पैदा हो। यदि सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता तो आणविक शास्त्रों से समूची दुनिया का ही विनाश हो जाएगा। इसी कारण भारत ने अधिक से अधिक देशों के साथ मैत्री संधि और व्यापारिक समझौते किए। इन संधियों में भारत-नेपाल संधि, भारत-इराक मैत्री संधि, भारत-जापान शांति संधि, भारत-मिश्र शांति संधि, भारत रूस मैत्री संधि, भारत-बांग्लादेश मैत्री संधि उल्लेखनीय है।

4) साधनों की पवित्रता की नीति : भारत की नीति अवसरवादी और अनैतिक नहीं रही है। भारत साधनों की पवित्रता में विश्वास करता रहा है। भारत की विदेश नीति महात्मा गांधी के इस मत से बहुत प्रभावित है कि न केवल उद्देश्य बल्कि उसकी प्राप्ति के साधन भी पवित्र होने चाहिए। यद्यपि उनके सत्य और अहिंसा के साधनों को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता है फिर भी भारत निरंतर इस बात का प्रयत्न करता रहा है कि अंतरराष्ट्रीय विवादों का समाधान शांतिपूर्ण उपायों से किए जाए हिंसात्मक साधनों से नहीं।

5) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध : भारत ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध अपना संघर्ष अति गंभीर रूप से लिया। भारत ने इसे केवल अपने देश की स्वतंत्रता तक ही सीमित न रख कर संपूर्ण उपनिवेशवादी तत्वों के विरुद्ध तथा सभी अधीन देश के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण के रूप में लिया है। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई भारत ने इंडोनेशिया के स्वतंत्रता के रूप में लड़ी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से ही नहीं, बल्कि नई दिल्ली में 1949 में एशियाई देशों का सम्मेलन बुलाकर इंडोनेशिया की आजादी हेतू व्यापक प्रयास किया। जिसके परिणामस्वरूप अंततः इंडोनेशिया को पूर्ण स्वतंत्र राज्य घोषित कराने में सफलता प्राप्त हुआ।

6) रंगभेद का विरोध : रंगभेद की नीतियों के विरुद्ध भी भारत ने भरसक प्रयत्न किये। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों का विरोध महात्मा गांधी से लेकर स्वतंत्र भारत में भी बहुत सशक्त रूप से हुआ। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंच के माध्यम से इस नीति को समाप्त करने की बात बहुत ही सशक्त रूप से पेश की। यद्यपि इस रंगभेद के विरुद्ध भारत की लड़ाई में अमेरिका व इंग्लैंड का पूर्ण सहयोग प्राप्त न होने के कारण कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु फिर भी भारत जनमत को इसके विरुद्ध करने में सफल रहा। भारत के निरंतर प्रयासों के कारण सुरक्षा परिषद ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार के विरुद्ध अनेक प्रतिबंधों की घोषणा की। इस प्रकार भारत की सक्रिय भूमिका के साथ-साथ अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के समर्थन से जिंबाब्वे, नामीबिया आदि की स्वतंत्रता के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद रहित सरकार की स्थापना हुई।

7) निःशस्त्रीकरण का समर्थन : भारत ने सदैव विश्व में सामान्य एवं व्यापक निःशस्त्रीकरण हेतु प्रयास किए हैं। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र एवं उसके बाहर भी सभी मंचों पर निःशस्त्रीकरण की प्रबल वकालत करने वाले राष्ट्रों में हमेशा भारत का अग्रणी स्थान रहा है। भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव का समर्थन किया है तथा अपने ज्ञापनों एवं संशोधनों के माध्यम से इस प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाया है। इस दिशा में नेहरू सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने परमाणु शस्त्रों से मुक्त विश्व स्थापित करने हेतु 2 अप्रैल 1954 में संयुक्त राष्ट्र में स्टैंडस्टील रिजोल्यूशन प्रस्तुत किया था। परंतु जब 1959 तक भारत के बार-बार दोहराने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हुई तब भारत की पहल पर 1961 में महासभा ने निःशस्त्रीकरण समिति के रूप में एक स्थायी समिति की स्थापना पर सहमति व्यक्त की। इन प्रयासों के फलस्वरूप 1963 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आंशिक परमाणु प्रतिबंध संधि पर सहमति हुई। इसे पांच परमाणु शक्तियों एवं भारत सहित कई अन्य राज्यों ने स्वीकृति प्रदान की।

8) संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था : भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना करने वाला एक संस्थापक सदस्य है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों और विशेष अभिकरणों में सक्रिय रूप से भाग लेकर महत्वपूर्ण कार्य किया है। भारत ने कभी भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन नहीं किया और संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेशों का यथोचित सम्मान किया है। कोरिया और हिंद चीन में शांति स्थापित करने के लिए भारत ने राष्ट्र संघ की सहायता की। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर कांगो में शांति स्थापना हेतु अपनी सेनाएं भेजी, जिन्होंने उस देश की एकता को सुरक्षित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन करने में भारत ने जितना सहयोग किया है, उतना दुनिया के बहुत कम देशों ने किया है। आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का अटूट विश्वास है और उसकी यह नीति है कि दुनिया के अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में विश्व संस्था का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये।

बुधवार, 20 दिसंबर 2023

भीतरगांव का 1500 साल पुराना ईंटों का मंदिर : एक चमत्कार



कानपुर शहर से हमीरपुर की ओर 30 किलोमीटर दूर, एक हलचल भरे शहर के बीच में, संकरी गलियों से घिरे पक्के घरों के समूह में, भीतरगाँव का मंदिर है। गेट पर एक बिलबोर्ड में उल्लेख है: 'गुप्त-युग मंदिर'। एएसआई अधीक्षण पुरातत्वविद्, लखनऊ सर्कल द्वारा मंदिर में लगाई गई एक पट्टिका में उल्लेख है कि मंदिर 5वीं शताब्दी का है और इसमें कुछ वास्तुशिल्प विशेषताओं का विवरण है।

गूगल मैप के जमाने में आज भी इसकी लोकेशन पता करना मुश्किल है। जैसे ही कोई इतिहास के पन्ने पलटता है, पता चलता है कि हमेशा से यही स्थिति थी। यह मंदिर हमेशा से ही साधकों के लिए एक आकर्षण रहा है। स्थानीय निवासियों को प्राचीन संरचना के शैक्षिक महत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं है, न ही कोई रुचि है क्योंकि मंदिर में कोई देवता नहीं है।

बड़े पैमाने पर पुनर्निर्मित, बाहरी दीवार पर कुछ टेराकोटा आकृतियाँ, एक बंद गर्भगृह और एक शिखर वाला यह ईंटो का मंदिर, जो 175 साल पहले ढह गया था। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यहां बहुत हि कम प्रवासी आते हैं। एएसआई द्वारा यहां तैनात एक बुजुर्ग केयरटेकर के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। वह लॉन में एक बेंच पर प्रवासी रजिस्टर के साथ बैठता है जिसमें व्यस्त दिन में भी एक दर्जन से अधिक नाम नहीं देखे जाते हैं।

लेकिन यह सब एक अप्रशिक्षित आंख के लिए है। जानकार लोगों के लिए, यह एक ऐसी संरचना है जो समय के थपेड़ों को झेलती हुई, महमूद के लालच, या सिकंदर लोदी की कट्टरता और औरंगजेब के आतंक के "मूर्ति-भंजन काल" से बची रही या कहे बच गई।

एक कठिन यात्रा और ईस मंदिर की खोज

1875 में, ब्रिटिश भारत में काम करने वाले और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को रिपोर्ट करने वाले एक अर्मेनियाई-भारतीय इंजीनियर, पुरातत्वविद् और फोटोग्राफर जोसेफ डेविड बेगलर ने भीतरगांव का दौरा किया और एक मंदिर पाया जिसके बारे में स्थानीय लोगों का मानना ​​था कि यह प्राचीन था। यह मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था और इसके तत्काल संरक्षण की आवश्यकता थी। बेगलर, जो एएसआई के संस्थापक अलेक्जेंडर कनिंघम के सहायक थे, कलकत्ता वापस गए और कनिंघम को अपनी तस्वीरें दिखाईं, कनिंघम को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ की ऐसा चमत्कार जैसा मंदिर अस्तित्व में है क्योंग कि कनिंघम के पुराने मित्र और प्रसिद्ध भारतीय विद्वान, भाषाविद् और इतिहासकार राजा शिवप्रसाद ने भी उन्हें उसी मंदिर के बारे में पहले लिखा था, जिसमें उल्लेख किया गया था कि इसमें "उत्कृष्ट प्रकार की मूर्तिकला टेराकोटा है"।

कनिंघम उस समय 64 वर्ष के थे, अपने व्यस्त कार्यक्रम और उन दिनों लंबी दूरी की कठिन यात्रा व्यवस्था के बावजूद उन्होंने कठिन यात्रा की - कलकत्ता से कानपुर तक नाव में यात्रा की और फिर इस गांव तक पहुंचने के लिए एक घोड़ा गाड़ी ली। लेकिन उनके अपने शब्दों में, वर्ष 1877 का वो नवंबर महिना था और कनिंघम जिसे पूरे भारत में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर मानते थे उस चमत्कार समान मंदिर के ठीक सामने खडे थे। उसके बाद कनिंघमने फरवरी 1878 में फिर से इस संरचना का प्रवास किया।

पुरात्त्विय और स्थापत्य अजुबा 

कनिंघम ने निष्कर्ष निकाला कि गुप्त वास्तुकला की विशिष्ट विशेषताओं वाला यह मंदिर 7वीं या 8वीं शताब्दी के बाद का या उससे भी पुराना है। उन्होंने लिखा, "भीतरगांव देवल (उस समय स्थानीय रूप से मंदिर को संदर्भित किया जाता था) एक प्राचीन ईंटो के मंदिर का एकमात्र नमूना है और ऐसा प्रतीत होता है कि निर्माण की यह शैली कई शताब्दियों तक बड़े पैमाने पर प्रचलित रही होगी..." उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भीतरगांव मंदिर प्राचीन शहर फूलपुर का हिस्सा रहा होगा। उस समय स्थानीय लोगों को मंदिर में किसी प्रार्थना के आयोजन की कोई स्मृति नहीं थी। हालाँकि वे देवल को "प्राचीन" कहते थे और उन्होंने अपने पूर्वजों से सुना था कि इसके गुंबद पर "1857 के विद्रोह से 2-4 साल पहले" बिजली गिरी थी। इसकी बाहरी दीवार पर बनी टेराकोटा आकृतियों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह एक विष्णु मंदिर था।

जिन्होंने 1901 से 1914 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ काम किया ऐसे एक डच संस्कृतविद् और पुरालेखविद् जीन फिलिप वोगेलने 1907 में मंदिर का सर्वेक्षण किया और इसे कनिंघम के अनुमान से कम से कम तीन शताब्दी पहले का निर्माण बताया। उन्होंने लिखा, भीतरगांव के मंदिर की सजावट कसिया के निर्वाण मंदिर की सजावट के समान है, जो गुप्त काल के बाद की नहीं हो सकती। इसकी वास्तुकला, भित्तिस्तंभों और अन्य विशेषताओं के आधार पर जेसी हार्ले और पर्सी ब्राउन दोनों ने मंदिर को 450-460 ईस्वी के आसपास स्थापित किया था।



हार्ले ने लिखा, "देवगढ़ में दावात्रा मंदिर, जिसकी अधिरचना काफी हद तक अनुमानित है, और कानपुर के पास भितरगांव मंदिर, असंख्य ईंट मंदिरों में  से एकमात्र उप्लब्ध है जो गुप्त काल के दौरान मध्यदेव में बनाया गया होगा, लगभग निश्चित रूप से ऊंचे घुमावदार इखारे थे ।” उनके अनुसार, बडी बडी ईंटें - मूल ईंटें अभी भी पुनर्निर्मित मंदिर के आंतरिक कक्ष में रखी हुई हैं, वर्तमान पीढ़ी के लिए कुछ भी देखने के लिए बहुत बड़ी हैं - "इस मंदिर की गुप्त तिथि स्थापित करेगी और 450 ई.पू. नवीनतम प्रतीत होता है”। मोटे तौर पर यह जिसने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी उस कुमारगुप्त प्रथम (415-455 ई.) का शासनकाल होगा।

जब से कनिंघम द्वारा इस प्राचीन इंटों के मंदिर की खोज की गई, तब से इसने दुनिया भर के विद्वानों को यह मंदिर आकर्षित करता रहा है। ब्रिटिश पुरातत्वविद् और कला इतिहासकार अल्बर्ट हेनरी लॉन्गहर्स्ट ने 1909 में इस मंदिर का दौरा किया और उसने इस मंदिर को बहुत हि जीर्ण-शीर्ण पाया। कनिंघम की रिपोर्ट के ब्रिटिश अकादमिक हलकों में काफी खलबली  मचने के बाद, PWD ने 1884-85 में मंदिर का संरक्षण शुरू किया परंतु धन की कमी के कारण रुक गया।

1909 के बाद संरक्षण के दूसरे दौर का प्रयास किया गया। तब से, जैसे कि बाहरी दीवार पर टेराकोटा की आकृतियों को बहाल करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं ऐसे ही प्रयास  किये गये परंतु अब वो दिवार तुटने के कगार पर हैं। चूंकि मंदिर में कम से कम 170 वर्षों में कोई प्रार्थना नहीं हुई है, इसलिए मंदिर के अधिपति देवता के बारे में संभ्रम में है।

इतिहासकार मोहम्मद जहीरने अपनी 1980 की किताब ''द टेम्पल ऑफ भीतरगांव''का मंदिर एक विष्णु मंदिर है ऐसे कनिंघम के इस दावे से असहमत होने के लिए प्रतीकात्मक साक्ष्य के विश्लेषण पर भरोसा किया है कि । इतिहासकार मोहम्मद जहीरने कहा कि चूंकि दक्षिण में भद्रा में गणेशजी  मौजूद हैं इसलिए यह मंदिर शिवमंदिर भी हो सकता है। 

"मंदिर के टेराकोटा पैनलों में कई शैव प्रसंग भी पाए जाते हैं। गणेश दक्षिण में भद्र क्षेत्र में एक प्रमुख स्थान पर विराजमान हैं। शिवजी गजासुर-संहार-मूर्ति के रूप में एक पैनल में दिखाई देते हैं। हालांकि इस पैनल की विशेषताएं बहुत अधिक लुप्त हो गई हैं, उन्होंने लिखा, ''पैनल पर हाथी को पकड़े हुए उनके फैले हुए हाथ बहुत स्पष्ट हैं। एक अन्य पैनल में, शिव को पार्वती के साथ बैठे दिखाया गया है, जो शायद पासे का खेल खेल रहे हैं।''

ज़हीर ने मंदिर से संबंधित कुल 143 टेराकोटा पैनलों की गिनती की: 128 पैनल यथास्थान पर है, 2 भारतीय संग्रहालय कोलकाता में, 12 पैनल राज्य संग्रहालय लखनऊ में, और कनिंघम द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ में दिखनेवाली एक पैनल का अब तक पता नहीं चल पाया है।



ईंटों से बना हुआ चमत्कार

मंदिर कैसा रहा होगा, इसके बारे में एकरूपता नहीं है हालाँकि अटकलें प्रचुर मात्रा में हैं। भीतरगांव देवल से लगभग 500 फीट की दूरी पर, कनिंघम ने ईंटों और टूटी हुई आकृतियों से ढके खंडहरों का एक पुराना टीला खोजा था, जिसे स्थानीय लोग 'झिझी नाग का मंदिर' कहते थे। उन्होंने उन्हें देवल जितना ही प्राचीन पाया और दावा किया कि भीतरगांव का मंदिर एक बड़े मंदिर परिसर का हिस्सा हो सकता है जो एक समय पर उन्नत रहा होगा।

2023 में, जब ज़हीरने इस स्थान का दौरा किया, तो स्थानीय निवासियों को 'झिझी नाग' के बारे में कुछ भी पता नहीं था और किसी भी खंडहर का कोई निशान नहीं मिला। कनिघम ने जो दावा किया था कि भीतरगांव से 5 किलोमीटर दूर बेहटा के मंदिर के खंभे है वहां से खंभे हटा दिए गए थे। 

उत्तम मंदिर कला के उदाहरण इस मंदिर में मिलते है यहाँ एक पैनल में भगवान श्रीकृष्ण को वृषभासुर का वध करते हुए दिखाया गया है और दूसरे में भगवान श्रीकृष्ण राक्षस हाथी कुवलयापीड को वश में कर रहे हैं ऐसा दिखाई देता है। एक अन्य पैनल में, उन्हें अपने बड़े भाई बलराम के साथ बैठे हुए दिखाया गया है, बलराम को उनके सिर के ऊपर एक सर्प के फण के साथ दिखाया गया है। यहां देवी गंगा, यमुना, पार्वती की आकृतियां हैं जो शिव के साथ बैठकर पासे का खेल खेल रही है ऐसा लगता है और एक अन्य आकृति में माता दुर्गा राक्षसों का वध कर रही हो ऐसा दिखता है।

इंटो से बना एक मात्र बचा हुआ स्थापत्य

एक प्रश्न जिसने इतिहासकारों को सदैव परेशान किया है कि यह मंदिर, समय की मार, स्थानीय लोगों से लूटपाट और मध्ययुगीन युग के घूमने वाले लुटेरों और डेढ़ सहस्राब्दी से अधिक समय तक विधर्मी आक्रमणकारियों के हमले, इतनी सारी बाधाओं से कैसे बच गया ? 

कनिंघम ने कहा, "यह अजीब लगता है कि भीतरगांव मंदिर अपनी असंख्य टेराकोटा मूर्तियों के साथ इस्लामिक  मूर्तिभंजको से कैसे बच गया।" उनके पास एक दिलचस्प सिद्धांत था. उनका मानना ​​था कि मंदिर हमेशा अपने सुदूर स्थान के कारण बचा हुआ है। 

कनिंघम ने 1880 में लिखा, "पेड़ों के घने झुरमुटों के बीच बना और अरिंद नदी की घुमावदार धाराओं से संरक्षित, मंदिर इस तरह से छिपा हुआ है कि मैं अपनी दूसरी यात्रा में जब तक गांव के एक मील के भीतर नहीं गया तब तक इसका वर्णन करने में विफल रहा"।

आक्रंताओ के मूर्ति-भंजन काल के दौरान, जब कानपुर अज्ञात था, और लखनऊ एक देहाती शहर था, सड़क की मुख्य लाइनें भीतरगांव से कई मील की दूरी तक सभी तरफ से गुजरती थीं शायद इस मंदिर का बचना केवल इसकी यह भाग्यशाली स्थिति के कारण हो सकता है' उन्होंने लिखा।

कनिंघम ने निष्कर्ष निकाला, "अगर यह थानेसर या मथुरा जैसा तीर्थ स्थान होता, तो यह महमूद के लोभ या सिकंदर लोदी की कट्टरता से बच नहीं पाता।" उनका मानना ​​था कि मंदिर "विशेष प्रसिद्धि वाले किसी निजी व्यक्ति" का हो सकता है और इसका विवरण आसपास के बड़े शहरों में लोगों के लिए अज्ञात था परिणामस्वरूप, यह आक्रमणकारियों की नज़रों से बच गया। 

इतिहासकारों का यह भी मानना ​​है कि यह मंदिर किसी "विशेषरुप से प्रसिद्ध व्यक्ति" का हो सकता है और इसका विवरण आसपास के बड़े शहरों में लोगों के लिए अज्ञात था।

शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

भारत का मिशन सुर्य : आदित्य L-1

 

चंद्र के बाद अब इसरो सूरज के लिए मिशन जल्द ही शुरू हो सकता है इसरो चिफ श्री एस. सोमनथन ने चंद्रयान-3 की सफलता के बाद कहा की ईसरो कई प्रोजेक्ट्स पर कार्य कर रहा है आनेवाले तीन महिनों में ईसरो गगनयान और आदित्य L1 समेत कई महत्वपुर्ण मिशन लोंच करने जा रहा है इसरो के इस सोलर मिशन का नाम आदित्य L1 होगा यह भारत का पहला अंतरिक्ष अभियान होगा जो सूर्य के अध्ययन के लिए भेजा जाएगा। इसके लिए सारी तैयारीयां पुरी की जा चुकी है। इसरो 2 सितम्बर को सूर्य के वातावरण की अभ्यास करने के लिए सतिश धवन स्पेस सेंटर से पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी LMV M3 रॉकेट पर अपना Aditya L1 लॉन्च करने जा रहा है आदित्य L1 का एसेम्बलिंग किया जा चुका है और Aditya L1 रोकेट से जोडने का कार्य पुर्ण गति से चल रहा है 

क्या है L1 का अर्थ?

सेटेलाइट इस एल1 कक्षा के आगे नहीं जा सकता है, क्योंकि अगर इसे पार किया तो सूयॅ की गरमी से जल जायेगा इसलिए इसी बिंदु पर रहकर ADITYA-L1 सुर्य का अभ्यास, अध्ययन करेगा L1 एक ऐसी कक्षा है, जो सूरज और पृथ्वी के बीच की ऐसी दूरी होती है, जहां दोनों का गुरुत्वाकर्षण शून्य रहता है. अर्थात यहाँ न तो सूरज की ग्रैविटी उसे अपनी तरफ खींच सकती है, न तो पृथ्वी की... L1 को लैंग्रेजियन प्वाइंट कहा जाता है ऐसे पांच प्वाइंट हैं, लेकिन L1 एक ऐसी जगह है जहां से सुर्य का सरलता से अध्ययन, संशोधन किया जा सकता है जहां दोनों ग्रहों की ग्रैविटी खत्म हो जाती है. इस प्वाइंट की पृथ्वी से कुल दूरी करीब 15 लाख (1.5 मिलियन) किमी है लॉन्च किए जाने के पूरे चार महीने बाद सूरज-पृथ्वी के सिस्टम में लैगरेंज पॉइंट-1 तक पहुंचेगा अंतरिक्ष में इसी स्थान से अमेरिका की अंतरिक्ष संस्था नासा और युरोपीयन अंतरिक्ष संस्था का सोहो उपग्रह वर्ष1996 से सुर्य का अभ्यास कर रहा है, भारत का आदित्य L1 सुर्य के बारे में विषेश जानकरी प्राप्त करेगा इस खास बिंदु लैग्रेंज प्वाइंट 1 (L1) की विशेषता यह है कि यहां वेधशाला के संचालन के लिए ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होगी इसीलिए इस मिशन को आदित्य L-1 नाम दिया गया है आदित्य L-1 मिशन की सफलता के पश्चात इसरो उन स्पेस एजेंसी के समूह में शामिल हो जाएगा जिन्होंने सूर्य के लिए एक खास यान प्रक्षेपित किया है 

आदित्य L1 में कौन कौन से उपकरण होंगे? 

आदित्य L1 को कुल मिलाकर 7 पेलोड (उपकरणों) के साथ लॉन्च किया जाना है यह सात पेलोड में शामिल है: सौर पराबैंगनी इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT), सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS), आदित्य सोलर विंड पार्टिकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX), हाई एनर्जी L1 ऑर्बिटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS), आदित्य के लिये प्लाज़्मा विश्लेषक पैकेज (PAPA), उन्नत त्रि-अक्षीय उच्च रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर। यह सातों उपकरण विविध रुप से सुर्य का अभ्यास करेंगेआदित्य L1 5 वर्ष तक सुर्य का अभ्यास करेगा।आदित्य L1 सूर्य के कोरोनल मास इजेक्शन का अभ्यास करेगा



आदित्य L1 सुर्य का क्या अभ्यास करेगा?

जैसे उपर बताया आदित्य-L1 में कुल मिलाकर अलग-अलग सात पेलोड होंगे इसमें हाई डेफिनेशन कैमरे भी लगे होंगे आदित्य L-1 में लगे कुल सात पेलोद में से चार पेलोड सुर्य की रिमोट सेंसिंग करेंगे और बाकी के तीन इन पेलोद -सीटू ऑब्जर्वेशन का कार्य करनेवाले है आदित्य-L1 से सूर्य के फोटोस्फेयर, क्रोमोस्फेयर और सबसे बाहरी परत 'कोरोना' पर नजर रखी जाएगी। इसके लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक, पार्टिकल और मैग्नेटिक फील्ड डिटेक्टरों का इस्तेमाल किया जाएगा। इनमें से चार पेलोड्स सीधे सूरज पर नजरें रखेंगे। बाकी तीन आसपास के क्षेत्र में मौजूद पार्टिकल और अन्य चीजों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाकर देंगे। इसरो को उम्मीद है कि आदित्य एल 1 पर लगे पेलोड्स की मदद से कोरोनल हीटिंग, कोरोनल मास इजेक्शन, सौर धधक से पहले और बाद की गतिविधियों, उनकी विशेषताओं, अंतरिक्ष के मौसम की गतिशीलता आदि के बारे में काफी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारियां प्राप्त की जा सकेंगी।

https://devenzvoice.blogspot.com/2023/08/isro.html 

अब तक किस किस देशों के कितने मिशन सुर्य के संशोधन के लिए हुए है? 

सुर्य के विशिष्ट संशोधन के लिए अब तक अमेरिका, जर्मनी, जापान, चीन और युरोपीय देशों के द्वारा अकेले अथवा संयुक्त रुप से 25 मिशन भेजे जा चुके है। इन 25 मिशनों में से सात मिशन आज भी सक्रीय रुप से कार्य कर रहे है। सुर्य के संशोधन के लिए सब से ज्यादा मिशन अब तक अमेरिकाने भेजे है जबकि जापान और चीनने एक एक मिशन भेजा है और युरोपीय युनियन और जर्मनीने अमेरिका की अंतरिक्ष संस्था नासा के साथ मिलकर संयुक्त रुप से मिशन भेजे है। वर्तमान में नासा और युरोपीय स्पेस एजंसी का सोहो मिशन L-1 बिंदु से ही सुर्य का संशोधन कर रहा है, भारत का आदित्य L-1 मिशन भी इसी बिंदु से सुर्य का अभ्यास करनेवाला है।  

 

विज्ञान के उद्देश्य:

आदित्य-एल1 मिशन के प्रमुख विज्ञान उद्देश्य हैं:

  • सौर ऊपरी वायुमंडलीय (क्रोमोस्फीयर और कोरोना) गतिकी का अध्ययन।
  • क्रोमोस्फेरिक और कोरोनल तापन, आंशिक रूप से आयनित प्लाज्मा की भौतिकी, कोरोनल मास
  • इजेक्शन की शुरुआत, और फ्लेयर्स का अध्ययन
  • सूर्य से कण की गतिशीलता के अध्ययन के लिए डेटा प्रदान करने वाले यथावस्थित कण और प्लाज्मा
  • वातावरण का प्रेक्षण
  • सौर कोरोना की भौतिकी और इसका ताप तंत्र।
  • कोरोनल और कोरोनल लूप प्लाज्मा का निदान: तापमान, वेग और घनत्व।
  • सी.एम.ई. का विकास, गतिशीलता और उत्पत्ति।
  • उन प्रक्रियाओं के क्रम की पहचान करें जो कई परतों (क्रोमोस्फीयर, बेस और विस्तारित कोरोना) में होती हैं जो अंततः सौर विस्फोट की घटनाओं की ओर ले जाती हैं।
  • कोरोना में चुंबकीय क्षेत्र टोपोलॉजी और चुंबकीय क्षेत्र माप।
  • हवा की उत्पत्ति, संरचना और गतिशीलता।

 


संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई है...