शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

सरदार उधमसिंह



उधमसिंह

21 साल बाद लिया था जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला

आज शहीद उधम सिंह की पुण्यतिथि है. आज ही के दिन 1940 में उन्हें माइकल ओ डायर की हत्या के आरोप में

पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई थी. सरदार उधम सिंह का असली नाम शेर सिंह था और कहा जाता है कि साल 1933 में उन्होंने पासपोर्ट बनाने के लिए 'उधम सिंह' नाम अपनाया.

उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. आजादी की इस लड़ाई में वे 'गदर' पार्टी से जुड़े और उस वजह से बाद में उन्हें 5 साल की जेल की सजा भी हुई. जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपना नाम बदला और पासपोर्ट बनाकर विदेश चले गए. लाहौर जेल में उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई. उधम सिंह भी किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते थे.

13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक चल रही थी. जहां वो भी पहुंचे और उनके साथ एक किताब भी थी. इस किताब में पन्नों को काटकर एक बंदूक रखी हुई थी. इस बैठक के खत्म होने पर उधम सिंह ने किताब से बंदूक निकाली और माइकल ओ’ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई.

गोली चलाने के बाद भी उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तार कर लिए गए. ब्रिटेन में ही उन पर मुकदमा चला और 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई.

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कुंवर चैनसिंह

नरसिंहगढ़ का शेर "कुंवर चैनसिंह" / बलिदान दिवस - 24 जुलाई 1824

भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं, जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकार की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

अब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। चैनसिंह अपने दो विश्वस्त साथियों हिम्मत खाँ और बहादुर खाँ के साथ उससे मिलने गये। ये दोनों सारंगपुर के पास ग्राम धनौरा निवासी सगे भाई थे। चलने से पूर्व चैनसिंह की माँ ने इन्हें राखी बाँधकर हर कीमत पर बेटे के साथ रहने की शपथ दिलायी। कुँवर का प्रिय कुत्ता शेरू भी साथ गया था।

जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार यह पहली भेंट निष्फल रही। कुछ दिन बाद जनरल मेंढाक  ने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया। इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है। उन्होंने आव देखा न ताव, जनरल पर हमला कर दिया।

फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। जनरल तो तैयारी से आया था। पूरी सैनिक टुकड़ी उसके साथ थी; पर कुँवर चैनसिंह भी कम साहसी नहीं थे। उन्हें अपनी तलवार, परमेश्वर और माँ के आशीर्वाद पर अटल भरोसा था। दिये और तूफान के इस संग्राम में अनेक अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर उन्होंने अपने दोनों साथियों तथा कुत्ते के साथ वीरगति पायी। यह घटना लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को घटित हुई थी।

चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी। उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

Courtesy : vskgujarat.com

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

चंद्रशेखर आज़ाद

#Chandrasekhar_Azad

आजाद ही जन्मा हुँ और मरते दम तक आजाद ही रहूँगा

जन्मदिन - 23 जुलाई

चंद्रशेखर आजाद, जो सदा आजाद रहे

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों में चन्द्रशेखर आजाद का नाम सदा अग्रणी रहेगा। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को ग्राम माबरा (झाबुआ, मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पूर्वज गाँव बदरका (जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे; पर अकाल के कारण इनके पिता श्री सीताराम तिवारी माबरा में आकर बस गये थे।

बचपन से ही चन्द्रशेखर का मन अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सुलगता रहता था। किशोरावस्था में वे भागकर अपनी बुआ के पास बनारस आ गये और संस्कृत विद्यापीठ में पढ़ने लगे।

बनारस में ही वे पहली बार विदेशी सामान बेचने वाली एक दुकान के सामने धरना देते हुए पकड़े गये। थाने में हुई पूछताछ में उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतन्त्रता और घर का पता जेलखाना बताया। इस पर बौखलाकर थानेदार ने इन्हें 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत पर ये ‘भारत माता की जय’ बोलते थे। तब से ही इनका नाम 'आजाद' प्रचलित हो गया।

आगे चलकर आजाद ने सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से देश को आजाद कराने वाले युवकों का एक दल बना लिया। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल, अशफाक, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जयदेव आदि उनके सहयोगी थे।

आजाद तथा उनके सहयोगियों ने नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ से सहारनपुर जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन के पास रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। यह अंग्रेज शासन को खुली चुनौती थी, अतः सरकार ने क्रान्तिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत झोंक दी।

पर आजाद को पकड़ना इतना आसान नहीं था। वे वेष बदलकर क्रान्तिकारियों के संगठन में लगे रहे। ग्वालियर में रहकर इन्होंने गाड़ी चलाना और उसकी मरम्मत करना भी सीखा।

17 दिसम्बर, 1928 को इनकी प्रेरणा से ही भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक कार्यालय के ठीक सामने सांडर्स को यमलोक पहुँचा दिया। अब तो पुलिस बौखला गयी; पर क्रान्तिवीर अपने काम में लगे रहे।

कुछ समय बाद क्रान्तिकारियों ने लाहौर विधानभवन में बम फेंका। यद्यपि उसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था। बम फेंककर भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके वीरतापूर्ण वक्तव्यों सेे जनता में क्रान्तिकारियों के प्रति फैलाये जा रहे भ्रम दूर हुए। दूसरी ओर अनेक क्रान्तिकारी पकड़े भी गये। उनमें से कुछ पुलिस के अत्याचार न सह पाये और मुखबिरी कर बैठे। इससे क्रान्तिकारी आन्दोलन कमजोर पड़ गया।

वह 27 फरवरी, 1931 का दिन था। पुलिस को किसी मुखबिर से समाचार मिला कि आज प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद किसी से मिलने वाले हैं। पुलिस नेे समय गँवाये बिना पार्क को घेर लिया। आजाद एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उनकी निगाह पुलिस पर पड़ी, वे पिस्तौल निकालकर पेड़ के पीछे छिप गये।

कुछ ही देर में दोनों ओर से गोली चलनेे लगी। इधर चन्द्रशेखर आजाद अकेले थे और उधर कई जवान। जब आजाद की पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तो उन्होंने देश की मिट्टी अपने माथे से लगायी और उस अन्तिम गोली को अपनी कनपटी में मार लिया। उनका संकल्प था कि वे आजाद ही जन्मे हैं और मरते दम तक आजाद ही रहेंगे। उन्होंने इस प्रकार अपना संकल्प निभाया और जीते जी पुलिस के हाथ नहीं आये।

पोस्ट सौजन्य :
Vishwa Samvad Kendra Gujarat

बुधवार, 22 जुलाई 2020

राष्ट्र ध्वज स्वीकार दिन

संविधान-सभा  में वर्तमान ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया 22 जुलाई 1947

भारत के राष्ट्रीय ध्वज जिसे तिरंगा भी कहते हैं, तीन रंग की क्षैतिज पट्टियों के बीच नीले रंग के एक चक्र द्वारा सुशोभित ध्वज है। इसकी अभिकल्पना पिंगली वैंकैया ने की थी। इसे १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व २२ जुलाई, १९४७ को आयोजित भारतीय संविधान-सभा की बैठक में अपनाया गया था। इसमें तीन समान चौड़ाई की क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिनमें सबसे ऊपर केसरिया, बीच में श्वेत ओर नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी है। ध्वज की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात २:३ है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है जिसमें २४ अरे होते हैं। इस चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है व रूप सम्राट अशोक की राजधानी सारनाथ में स्थित स्तंभ के शेर के शीर्षफलक के चक्र में दिखने वाले की तरह होता है।

सरकारी झंडा निर्दिष्टीकरण के अनुसार झंडा खादीमें ही बनना चाहिए। यह एक विशेष प्रकार से हाथ से काते गए कपड़े से बनता है जो महात्मा गांधी द्वारा लोकप्रिय बनाया था। इन सभी विशिष्टताओं को व्यापक रूप से भारत में सम्मान दिया जाता हैं भारतीय ध्वज संहिता के द्वारा इसके प्रदर्शन और प्रयोग पर विशेष नियंत्रण है।

पोस्ट एवं फोटो सौजन्य : Vishwa Samvad Kendra Gujarat

मंगलवार, 21 जुलाई 2020

थार की लता "रुकमा मांगणियार"

थार की लता "रुकमा मांगणियार" / पुण्य तिथि - 21 जुलाई

राजस्थान के रेगिस्तानों में बसी मांगणियार जाति को निर्धन एवं अविकसित होने के कारण पिछड़ा एवं दलित माना जाता है। इसके बाद भी वहां के लोक कलाकारों ने अपने गायन से विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पुरुषों में तो ऐसे कई गायक हुए हैं; पर विश्व भर में प्रसिद्ध हुई पहली मांगणियार गायिका रुकमा देवी को ‘थार की लता’ कहा जाता है।

रुकमा देवी का जन्म 1945 में बाड़मेर के पास छोटे से गांव जाणकी में लोकगायक बसरा खान के घर में हुआ था। निर्धन एवं अशिक्षित रुकमादेवी बचपन से ही दोनों पैरों से विकलांग भी थीं; पर उन्होंने इस शारीरिक दुर्बलता को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया।

उनकी मां आसीदेवी और दादी अकला देवी अविभाजित भारत के थार क्षेत्र की प्रख्यात लोकगायिका थीं। इस प्रकार लोक संस्कृति और लोक गायिकी की विरासत उन्हें घुट्टी में ही मिली। कुछ बड़े होने पर उन्होंने अपनी मां से इस कला की बारीकियां सीखीं। उन्होंने धीरे-धीरे हजारों लोकगीत याद कर लिये। परम्परागत शैली के साथ ही गीत के बीच-बीच में खटके और मुरके का प्रयोग कर उन्होंने अपनी मौलिक शैली भी विकसित कर ली।

कुछ ही समय में उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। ‘केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देस’ राजस्थान का एक प्रसिद्ध लोकगीत है। ढोल की थाप पर जब रुकमा देवी इसे अपने दमदार और सुरीले स्वर में गातीं,तो श्रोता झूमने लगते थे। मांगणियार समाज में महिलाओं पर अनेक प्रतिबंध रहते थे; पर रुकमादेवी ने उनकी चिन्ता न करते हुए अपनी राह स्वयं बनाई।

यों तो रुकमादेवी के परिवार में सभी लोग लोकगायक थे; पर रुकमादेवी थार क्षेत्र की वह पहली महिला गायक थीं, जिन्होंने भारत से बाहर लगभग 40 देशों में जाकर अपनी मांड गायन कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने भारत ही नहीं, तो विदेश के कई कलाकारों को भी यह कला सिखाई।

रुकमा को देश और विदेश में मान, सम्मान और पुरस्कार तो खूब मिले;पर सरल स्वभाव की अशिक्षित महिला होने के कारण वे अपनी लोककला से इतना धन नहीं कमा सकीं, जिससे उनका घर-परिवार ठीक से चल सके। उन्होंने महंगी टैक्सी, कार और वायुयानों में यात्रा की, बड़े-बड़े वातानुकूलित होटलों में ठहरीं; पर अपनी कला को ठीक से बेचने की कला नहीं सीख सकीं। इस कारण जीवन के अंतिम दिन उन्होंने बाड़मेर से 65कि.मी दूर स्थित रामसर गांव में फूस से बनी दरवाजे रहित एक कच्ची झोंपड़ी में बिताये।

आस्टेªलिया निवासी लोकगायिका सेरडा मेजी ने दस दिन तक उनके साथ उसी झोंपड़ी में रहकर यह मांड गायिकी सीखी। इसके बाद दोनों ने जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में इसकी जुगलबंदी का प्रदर्शन किया। वृद्ध होने पर भी रुकमादेवी के उत्साह और गले के माधुर्य में कोई कमी नहीं आयी थी।

गीत और संगीत की पुजारी रुकवा देवी ने अपने जीवन के 50 वर्ष इस साधना में ही गुजारे। 21 जुलाई, 2011 को 66 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ। जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्हें इस बात का दुख था कि उनकी मृत्यु के बाद यह कला कहीं समाप्त न हो जाए; पर अब इस विरासत को उनकी छोटी बहू हनीफा आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है।

पोस्ट एवं फोटो सौजन्य :  Vishwa Samvad Kendra Gujarat

सोमवार, 20 जुलाई 2020

बटुकेश्वर दत्त

महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त / पुण्य तिथि - 20 जुलाई

यह इतिहास की विडम्बना है कि अनेक क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता के युद्ध में सर्वस्व अर्पण करने के बाद भी अज्ञात या अल्पज्ञात ही रहे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को ग्राम ओएरी खंडा घोष (जिला बर्दमान, बंगाल) में श्री गोष्ठा बिहारी दत्त के घर में हुआ था। वे एक दवा कंपनी में काम करते थे, जो बाद में कानपुर (उ.प्र.) में रहने लगे। इसलिए बटुकेश्वर दत्त की प्रारम्भिक शिक्षा पी.पी.एन हाईस्कूल कानपुर में हुई। उन्होंने अपने मित्रों के साथ ‘कानपुर जिमनास्टिक क्लब’की स्थापना भी की थी।

उन दिनों कानपुर क्रान्तिकारियों का एक बड़ा केन्द्र था। बटुकेश्वर अपने मित्रों में मोहन के नाम से प्रसिद्ध थे। भगतसिंह के साथ 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली के संसद भवन में बम फेंकने के बाद वे चाहते, तो भाग सकते थे; पर क्रान्तिकारी दल के निर्णय के अनुसार दोनों ने गिरफ्तारी दे दी।

छह जून, 1929 को न्यायालय में दोनों ने एक लिखित वक्तव्य दिया, जिसमें क्रान्तिकारी दल की कल्पना, इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थ तथा देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की बातें कही गयीं थीं 25 जुलाई, 1929 को उन्होेंने गृहमन्त्री के नाम एक पत्र भी लिखा, जिसमें जेल में राजनीतिक बन्दियों पर हो रहे अत्याचार एवं उनके अधिकारों की चर्चा की गयी है। उन्होंने अन्य साथियों के साथ इस विषय पर 114 दिन तक भूख हड़ताल भी की।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू को फाँसी घोषित हुई, जबकि दत्त को आजीवन कारावास। इस पर भगतसिंह ने उन्हें एक पत्र लिखा। उसमें कहा गया है कि हम तो मर जायेंगे; पर तुम जीवित रहकर दिखा दो कि क्रान्तिकारी जैसे हँस कर फाँसी चढ़ता है, वैसे ही वह अपने आदर्शों के लिए हँसते हुए जेल की अन्धकारपूर्ण कोठरियों में यातनाएँ और उत्पीड़न भी सह सकता है।

23 मार्च, 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह आदि को फाँसी हुई और बटुकेश्वर दत्त को पहले अंदमान और फिर 1938 में पटना जेल में रखा गया। जेल में वे क्षय रोग तथा पेट दर्द से पीड़ित हो गये। आठ सितम्बर, 1938 को वे कुछ शर्तों के साथ रिहा किये गये; पर 1942 में फिर भारत छोड़ो आंदोलन में जेल चले गये। 1945 में वे पटना में अपने बड़े भाई के घर में नजरबंद किये गये।

1947 में हजारीबाग जेल से मुक्त होकर वे पटना में ही रहने लगे। इतनी लम्बी जेल के बाद भी उनका उत्साह जीवित था। 36 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आसनसोल में सादगीपूर्ण रीति से अंजलि दत्त से विवाह किया। भगतसिंह की माँ विद्यावती जी उन्हें अपना दूसरा बेटा मानती थीं।

पटना में बटुकेश्वर दत्त को बहुत आर्थिक कठिनाई झेलनी पड़ी। उन्होंने एक सिगरेट कंपनी के एजेंट की तथा पत्नी ने एक विद्यालय में 100 रु0मासिक पर नौकरी की। 1963 में कुछ समय के लिए वे विधान परिषद में मनोनीत किये गये; पर वहाँ उन्हें काफी विरोध सहना पड़ा। उनका मन इस राजनीति के अनुकूल नहीं बना था।

1964 में स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर पहले पटना के सरकारी अस्पताल और फिर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उनका इलाज हुआ। उन्होंने बड़ी वेदना से कहा कि जिस दिल्ली की संसद में मैंने बम फेंका था, वहाँ मुझे स्ट्रेचर पर आना पड़ेगा, यह कभी सोचा भी नहीं था।

बीमारी में माँ विद्यावती जी उनकी सेवा में लगी रहीं। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और उनके कई पुराने साथी उनसे मिले। 20 जुलाई, 1965 की रात में दो बजे इस क्रान्तिवीर ने शरीर छोड़ दिया। उनका अन्तिम संस्कार वहीं हुआ, जहाँ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शव जलाये गये थे। अपने मित्रों और माता विद्यावती के साथ बटुकेश्वर दत्त आज भी वहाँ शान्त सो रहे हैं।

पोस्ट एवं फोटो सौजन्य : Vishwa Samvad Kendra Gujarat

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

सरस्वती गेलेक्सी

दिन विशेष : 14 जुलाई 2017

 14 जुलाई 2017,

 भारतीय साइंटिस्टों ने ढूंढी थी सूर्य से 2Cr अरब गुना बड़ी गैलेक्सीज, नाम सरस्वती रखा

नई दिल्ली. इंडियन एस्ट्रोनॉमर्स की टीम ने सूर्य से 2 करोड़ अरब गुना बड़ी गैलेक्सीज की खोज की है। इसे सरस्वती का नाम दिया गया है। पुणे की इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) के साइंटिस्टों ने कई गैलेक्सीज के इस सुपर क्लस्टर की खोज की। बता दें कि एक क्लस्टर में 1000 से 10,000 गैलेक्सीज होती हैं और एक सुपर क्लस्टर में 43 तक क्लस्टर हो सकते हैं। साइंटिस्ट्स के मुताबिक ये स्पेस में खोजा गया अब तक का सबसे बड़ा स्ट्रक्चर है।

क्यों खास गैलेक्सीज का ये सुपरक्लस्टर...
1000 करोड़ साल पुरानी हैं।
400 करोड़ लाइट ईयर (प्रकाशवर्ष) दूर हैं।
60 करोड़ लाइट ईयर से भी ज्यादा Mass (द्रव्यमान) है।

100 गुना तक बढ़ जाता है साइज
- अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल में पब्लिश रिपोर्ट में इस खोज के बारे में बताया गया।
- IUCAA ने कहा, "सुपर क्लस्टर कॉस्मिक वेब में मिला सबसे बड़ा स्ट्रक्चर है। ये गैलेक्सीज और गैलेक्सी क्लस्टर्स की चेन है, जो एक दूसरे से ग्रैविटी के जरिए जुड़ी हुई हैं। इसका आकार अक्सर 100 गुना तक बढ़ जाता है और इसमें हजारों गैलेक्सीज शामिल हैं।"
- खोज में शामिल IUCAA के साइंटिस्ट शिशिर सांख्यायन और रिपोर्ट के राइटर जॉयदीप बागची ने कहा, "हाल में खोजा गया सरस्वती सुपरक्लस्टर 60 करोड़ लाइट ईयर तक एक्स्टेंड हो सकता है। इसका आकार 2 करोड़ अरब सूर्यों के बराबर है। हमारी गैलेक्सी भी सुपर क्लस्टर लैनिआकी का हिस्सा है।"
- "स्लोअन डिजिटल स्काई सर्वे नाम के स्पेक्ट्रोस्कोपिक सर्वे में इस विशाल दीवार जैसी गैलेक्सी का मिलना एक आश्चर्य की तरह है।"
कई सवालों के जवाब मिलेंगे
- साइंटिस्टों ने कहा, "डाटा को एनालाइज करने के बाद ये खोज संभव हो सकती है। ये सुपर क्लस्टर साफ तौर पर कॉस्मिक फिलामेंट्स (ब्रह्मांडीय धागे) का नेटवर्क है, जिनमें कल्सटर्स और लार्ज वॉइड्स (बड़े निर्वात/शून्य) शामिल हैं। इस तरह के बड़े सुपर क्लस्टर कम ही पाए गए हैं। सरस्वती सुपर क्लस्टर इन सबसे काफी दूर है और इसकी खोज के कई ऐसे सवालों का जवाब मिलने की उम्मीद है,जो अभी तक अनसुलझे हैं। जैसे कि किस तरह इतना बड़ा और घना क्लस्टर अरबों साल पहले बना?"
ये साइंटिस्ट थे खोज में शामिल
शिशिर सांख्यायन, पीएचडी स्कॉलर, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER)
प्रतीक दबाढे, रिसर्च फेलो, IUCAA
जो जैकब, न्यूमैन कॉलेज
प्रकाश सरकार, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जमशेदपुर

- साभार बिजनेस स्टान्डर्ड और Vishwa Samvad Kendra Gujarat

नई दिल्ली. इंडियन एस्ट्रोनॉमर्स की टीम ने सूर्य से 2 करोड़ अरब गुना बड़ी गैलेक्सीज की खोज की है। इसे सरस्वती का नाम दिया गया है। पुणे की इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) के साइंटिस्टों ने कई गैलेक्सीज के इस सुपर क्लस्टर की खोज की। बता दें कि एक क्लस्टर में 1000 से 10,000 गैलेक्सीज होती हैं और एक सुपर क्लस्टर में 43 तक क्लस्टर हो सकते हैं। साइंटिस्ट्स के मुताबिक ये स्पेस में खोजा गया अब तक का सबसे बड़ा स्ट्रक्चर है।

क्यों खास गैलेक्सीज का ये सुपरक्लस्टर...
1000 करोड़ साल पुरानी हैं।
400 करोड़ लाइट ईयर (प्रकाशवर्ष) दूर हैं।
60 करोड़ लाइट ईयर से भी ज्यादा Mass (द्रव्यमान) है।

100 गुना तक बढ़ जाता है साइज
- अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल में पब्लिश रिपोर्ट में इस खोज के बारे में बताया गया।
- IUCAA ने कहा, "सुपर क्लस्टर कॉस्मिक वेब में मिला सबसे बड़ा स्ट्रक्चर है। ये गैलेक्सीज और गैलेक्सी क्लस्टर्स की चेन है, जो एक दूसरे से ग्रैविटी के जरिए जुड़ी हुई हैं। इसका आकार अक्सर 100 गुना तक बढ़ जाता है और इसमें हजारों गैलेक्सीज शामिल हैं।"
- खोज में शामिल IUCAA के साइंटिस्ट शिशिर सांख्यायन और रिपोर्ट के राइटर जॉयदीप बागची ने कहा, "हाल में खोजा गया सरस्वती सुपरक्लस्टर 60 करोड़ लाइट ईयर तक एक्स्टेंड हो सकता है। इसका आकार 2 करोड़ अरब सूर्यों के बराबर है। हमारी गैलेक्सी भी सुपर क्लस्टर लैनिआकी का हिस्सा है।"
- "स्लोअन डिजिटल स्काई सर्वे नाम के स्पेक्ट्रोस्कोपिक सर्वे में इस विशाल दीवार जैसी गैलेक्सी का मिलना एक आश्चर्य की तरह है।"
कई सवालों के जवाब मिलेंगे
- साइंटिस्टों ने कहा, "डाटा को एनालाइज करने के बाद ये खोज संभव हो सकती है। ये सुपर क्लस्टर साफ तौर पर कॉस्मिक फिलामेंट्स (ब्रह्मांडीय धागे) का नेटवर्क है, जिनमें कल्सटर्स और लार्ज वॉइड्स (बड़े निर्वात/शून्य) शामिल हैं। इस तरह के बड़े सुपर क्लस्टर कम ही पाए गए हैं। सरस्वती सुपर क्लस्टर इन सबसे काफी दूर है और इसकी खोज के कई ऐसे सवालों का जवाब मिलने की उम्मीद है,जो अभी तक अनसुलझे हैं। जैसे कि किस तरह इतना बड़ा और घना क्लस्टर अरबों साल पहले बना?"
ये साइंटिस्ट थे खोज में शामिल
शिशिर सांख्यायन, पीएचडी स्कॉलर, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एंड एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER)
प्रतीक दबाढे, रिसर्च फेलो, IUCAA
जो जैकब, न्यूमैन कॉलेज
प्रकाश सरकार, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जमशेदपुर

- साभार बिजनेस स्टान्डर्ड और Vishwa Samvad Kendra Gujarat

संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई है...