रविवार, 30 अगस्त 2020

भारतीय संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमिटी की रचना : 29 अगस्त 1947

 


दिनांक 29 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्र भारत के संविधान की रचना के लिए बनी संविधान सभाने महत्वपूर्ण ड्राफ्टिंग कमिटी की रचना की थी । नव निर्मित ड्राफ्टिंग कमिटी मे कुल 7 सदस्य थे। 1. डॉ. भीमराव आंबेडकर, 2. अल्लादी कृष्णस्वामी आयंगर, 3. एन. गोपालस्वमी, 4. कनैयालाल मा. मुंशी, 5. मोहम्मद सादुल्ला, 6. बी. एल. मित्तर  7. डी. पी. खैतान इस कमिटी मै शामिल थे. बी. एल. मित्तरने अपने नादुरस्त स्वास्थ्य के कारण ड्राफ्टिंग कमिटी से इस्तीफा दे दिया जिनकी जगह पर एन। माधवराव को लिया गया और डी. पी. खैतान की 1948 मे असमय मृत्यु से उनकी जगह टी. टी. कृष्णामाचारीने संभाली ।

ड्राफ्टिंगकमिटी की सबसे पहली बैठक 30 अगस्त 1947 को मिली थी और इसी प्रथम बैठक मे डॉ. भीमराव आंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के रूप मे चुना था। 


ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष के रूप मे डॉ. भीमराव आंबेडकरने 25 नवेंबर 1949 के दिन स्वतंत्र भारत का नवनिर्मित संविधान राष्ट्र को समर्पित किया था ।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

हाजी पीर दर्रे पर तिरंगा लहरा दिया :1965

भारतीय जवानों ने हाजी पीर  दर्रे पर तिरंगा लहराया - 
28 अगस्त, 1965

उनके पास खाने के लिए सीले हुए शकरपारे और बिस्कुट थे. तेज़ बारिश हो रही थी और मेजर रंजीत सिंह दयाल एक (1) पैरा के सैनिकों को लीड करते हुए हैदराबाद नाले की तरफ़ बढ़ रहे थे. उनका अंतिम लक्ष्य था हाजी पीर पास, जिसको पाकिस्तान और भारत दोनों एक अभेद्य लक्ष्य मानते थे. ये पास एक ऐसी जगह पर था जहां से इसका बहुत कम लोगों के साथ कहीं तगड़े प्रदिद्वंदी के ख़िलाफ़ बचाव किया जा सकता था.

करीब साढ़े आठ हजार फुट उंचाई से गुजरनेवाला हाजी पीर दर्रा पाकिस्तान के घुसपैठियों के लिए सबसे मददगार साबित हो रहा था. वो हाजी पीर के रास्ते आ रहे थे और जबावी हमला होने पर वहीं से वापस भी भाग जाते थे. इस रास्ते से ही घुसपैठियों तक रसद और हथियार भी भेजा जा रहा था. ऐसे में हाजी पीर पास पर कब्जा करना सबसे जरूरी था लेकिन ये सबसे चुनौतीपूर्ण भी था.

हाजी पीर कब्जे के लिए भारत ने इसपर दो तरफ से हमला करने की योजना बनाई. पूर्व की ओर से पंजाब रेजिमेंट को हमला करने के लिए कहा गया और पश्चिम से 1 पैरा रेजिमेंट को चोटियों पर कब्ज़ा करने का आदेश मिला. उस वक्त 1 पैरा रेजिमेंट की अगुवाई कर रहे थे मेजर रंजित सिंह दयाल.

रणजीत सिंह दयाल असाधरण बहादुर इंसान थे. नेक दिल के थे. एक कपंनी कमांडर को शादी के लिए जाना था इसलिए रणजीत सिंह दयाल ने तय किया ने खुद तय किया कि वो खुद कंपनी कमांडर बनेंगे. हमने उसे टेलिग्राम किया कि वो शादी करके पूरी छुट्टी बिताकर ही वापस लौंटे. उन्होंने खुद कंपनी कमांडर का जिम्मा संभाल लिया. उन्होंने बड़ी टास्क ले लिया था अपने से कम ओहदे के लिए. वो खुद फौज के साथ हाजी पीर गए.

इस चुनौतीपूर्ण अभियान में मेजर दयाल के साथ बिग्रेडियर अरविंदर सिंह भी थे. ये उनदिनों मेजर के रैंक पर थे. बिग्रेडियर अरविंद सिंह बताते हैं कि मेजर दयाल की अगुवाई में उनका पहला लक्ष्य संक के ढलानों पर कब्जा करना था. उन्होंने दुश्मन पर जबर्दस्त तरीके से हमला बोला और संक के ढलानों पर कब्जा कर लिया. इसके बाद वो हाजी पीर दर्रे की तरफ बढ़े. रात का वक्त था. तेज बारिश हो रही थी. पीठ पर गोला बारूद का बोझ था और सामने करीब डेढ़ हजार फुट की चढाई थी. सुबह होने से पहले अगर हाजी पीर की चोटी पर नही पहुंचते तो वो खुद दुश्मन के आसान शिकार बन जाते. इस मुश्किल हालात में मेजर दयाल ने सैनिकों का हौसला बढाया और वो आगे बढते रहे.

सुबह साढ़े चार बजे मेजर दयाल की टुकड़ी उड़ी-पुंछ हाईवे पर पहुंच चुकी थी. और फिर सुबह का सूरज निकलते ही सैनिकों ने हाजी पीर दर्रे पर हमला बोल दिया. रणनीति के मुताबिक कुछ भारतीय जवानों पाकिस्तानी फौजियों को गोलीबारी में उलझाए रखा और इस बीच मेजर दयाल दूसरी तरफ से वो सैनिकों के साथ अचानक दुश्मन के सामने पहुंच गए. पाकिस्तानी सिपाही चौंक पड़े. उन्हें संभलने का मौका नहीं मिला. कुछ तो हमले में मारे गए. कुछ हथियार छोड़ कर भाग खड़े हुए. और कई पाकिस्तानी घुसपैठिये ऐसे भी थे जो वहीं पकड़े गए. हाजी पीर दर्रे के पास की चोटियों पर हमले के दौरान दुश्मनों ने एक ग्रनेड अरविंदर सिंह पर फेंका था. धमाके से अरविंदर सिंह के पैर का एक हिस्सा उड़ गया.

बिग्रेडियर अरविंदर सिंह बताते हैं कि 28 तारीख तक हमने उसको अपने कब्जे में कर लिया था. ये अलग बात है कि हमने उसे रिटेन करने के लिए दर्रे से ज्यादा उनके बगल वाली चोटी पर कब्जा करना ज्यादा जरूरी होता है. अगर वो हम कब्जा करें तो दर्रे को हम इस्तेमाल कर सकते हैं. वो काम हमने 30 तारीख को किया जिसमें कि मैं कंपनी कमांडर के तौर पर इनवाल्व था. जिसमें मैं बहुत बुरी तरह जख्मी हुआ और अगले छह महीने तक मैं अस्पताल में था.

28 अगस्त सुबह दस बजे तक हाजी पीर दर्रे पर भारत का कब्जा हो चुका था. भारतीय जवानों ने हाजी पीर पर तिरंगा फहरा कर विजय जश्न मनाया. इस जीत के हीरो मेजर रंजित सिंह दयाल और जोरावर चंद बख्शी थे.

हाजी पीर दर्रे पर भारत का कब्जा पाकिस्तान के लिए करारा झटका था. पाकिस्तान के जो घुसपैठिये सैनिक कश्मीर पहुंच गए उनके लौटने का रास्ता अब बंद हो चुका था. वो कश्मीर में ही फंस गए. वो स्थानीय लोगों को भारत के खिलाफ भड़काने आए थे लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया. दूसरी तरफ पाकिस्तानी घुसपैठियों के लिए हाजी पीर दर्रे के रास्ते आने वाली रसद और हथियार की सप्लाई भी ठप पड़ गई.

इस अभियान में साहसपूर्ण शौर्य दिखाने के लिए मेजर रंजीत दयाल और ब्रिगेडियर ज़ोरू बख़्शी को महावीर चक्र दिया गया.

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

एकात्मता के पुजारी : पू. संत श्री नारायण गुरु

 एकात्मता के पुजारी "पू. संत श्री नारायण गुरु" 

जन्म दिवस - 20 अगस्त


हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है; पर छुआछूत और ऊंचनीच जैसी कुरीतियों के कारण हमें नीचा भी देखना पड़ता है। इसका सबसे अधिक प्रकोप किसी समय केरल में था। इससे संघर्ष कर एकात्मता का संचार करने वाले श्री नारायण गुरु का जन्म 20, अगस्त 1856 ई. में तिरुअनंतपुरम् के पास चेम्बा जनती कस्बे में ऐजवा जाति के श्री मदन एवं श्रीमती कुट्टी के घर में हुआ था।


नारायण के पिता अध्यापक एवं वैद्य थे; पर प्राथमिक शिक्षा के बाद कोई व्यवस्था न होने से वे अपने साथियों के साथ गाय चराने जाने लगे। वे इस दौरान संस्कृत श्लोक याद करते रहते थे। कुछ समय बाद वे खेती में भी हाथ बंटाने लगे। 1876 में गुरुकुल में भर्ती होकर उनकी शिक्षा फिर प्रारम्भ हुई। वे खेलकूद का समय प्रार्थना एवं ध्यान में बिताते थे। स्वास्थ्य खराबी के कारण उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो सकी। घर आकर उन्होंने एक विद्यालय खोल लिया। इसी समय उन्होंने काव्य रचना और गीता पर प्रवचन भी प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने गृहस्थ जीवन के बंधन में बंधने से मना कर दिया।


अध्यात्म एवं एकांत प्रेमी नारायण भोजन, आवास और हिंसक पशुओं की चिन्ता किये बिना जंगलों में साधनारत रहते थे। अतः लोग उन्हें चमत्कारी पुरुष मानकर स्वामी जी एवं नारायण गुरु कहने लगे। यह देखकर ईसाई और मुसलमान विद्वानों ने उन्हें धर्मान्तरित करने का प्रयास किया; पर वे सफल नहीं हुए। 1888 में वे नयार नदी के पास अरूबीपुर में साधना करने लगे। वहां उन्होंने शिवरात्रि पर मंदिर बनाने की घोषणा की। आधी रात में भक्तों की भीड़ के बीच वे नदी में से एक शिवलिंग लेकर आये और उसे वैदिक मंत्रों के साथ एक चट्टान पर स्थापित कर दिया। इस प्रकार अरूबीपुर नूतन तीर्थ बन गया। कई लोगों ने यह कहकर इसका विरोध किया कि छोटी जाति के व्यक्ति को मूर्ति स्थापना का अधिकार नहीं है; पर स्वामी जी चुपचाप काम में लगे रहे।


समाज सुधार के अगले चरण के रूप में 100 से अधिक मंदिरों से उन्होंने मदिरा एवं पक्षीबलि से जुड़े देवताओं की मूर्तियां हटवा कर शिव, गणेश और सुब्रह्मण्यम की मूर्तियां स्थापित कीं। उन्होंने नये मंदिर भी बनवाये, जो उद्यान, विद्यालय एवं पुस्तकालय युक्त होते थे। इनके पुजारी तथाकथित छोटी जातियों के होते थे; पर उन्हें तंत्र, मंत्र एवं शास्त्रों का नौ साल का प्रशिक्षण दिया जाता था। मंदिर की आय का उपयोग विद्यालयों में होता था। दिन भर काम में व्यस्त रहने वालों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोली गयीं। अनेक तीर्थों में अनुष्ठानों की उचित व्यवस्था कर पंडों द्वारा की जाने वाली ठगाई को बंद किया। बरकला की शिवगिरी पहाड़ी पर उन्होंने ‘शारदा मठम्’ नामक वैदिक विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर की स्थापना की। इसी प्रकार अलवै में ‘अद्वैत आश्रम’ बनाया।


1924 ई. की शिवरात्रि को स्वामी जी ने अलवै में सर्वधर्म सम्मेलन कर सब धर्मों को जानने का आग्रह किया। वे तर्क-वितर्क और कुतर्क से दूर रहते थे। इससे लोगों के विचार बदलने लगे। ‘वैकोम सत्याग्रह’ के माध्यम से कई मंदिरों एवं उनके पास की सड़कों पर सब जाति वालों का मुक्त प्रवेश होने लगा। इसमें उच्च जातियों के लोग भी सहभागी हुए। यह सुनकर गांधी जी उनसे मिलने आये और उन्हें ‘पवित्र आत्मा’ कहकर सम्मानित किया।


स्वामी जी ने सहभोज, अंतरजातीय विवाह तथा कर्मकांड रहित सस्ते  विवाहों का प्रचलन किया। बाल विवाह तथा वयस्क होने पर कन्या के पिता द्वारा दिये जाने वाले भोज को बंद कराया। उन्होंने अपने विचारों के प्रसार हेतु ‘विवेक उदयम्’ पत्रिका प्रारम्भ की। 20 सितम्बर, 1928 को एकात्मता के इस पुजारी का देहांत हुआ। केरल में उनके द्वारा स्थापित मंदिर, आश्रम तथा संस्थाएं समाज सुधार के उनके काम को आगे बढ़ा रही हैं।

बुधवार, 12 अगस्त 2020

विक्रम साराभाई : भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान के जनक

 महान वैज्ञानिक डा. विक्रम साराभाई / जन्म दिवस - 12 अगस्त


भारत के अंतरिक्ष विज्ञान के भिष्मपिता, पद्म भूषण,पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (ISRO) की नींव रखने वाले श्री डॉ. विक्रम साराभाई जी की जन्मजयंती पर शत् शत् नमन।

जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे। पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डा. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं।


डा. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये। उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई। इनकी गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी। वे नयी बात सीखने को सदा उत्सुक रहते थे। श्री अम्बालाल का सम्बन्ध देश के अनेक प्रमुख लोगों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर,जवाहरलाल नेहरू, डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन और सरोजिनी नायडू जैसे लोग इनके घर पर ठहरते थे। इस कारण विक्रम की सोच बचपन से ही बहुत व्यापक हो गयी।


डा. साराभाई ने अपने माता-पिता की प्रेरणा से बालपन में ही यह निश्चय कर लिया कि उन्हें अपना जीवन विज्ञान के माध्यम से देश और मानवता की सेवा में लगाना है। स्नातक की शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये और 1939 में‘नेशनल साइन्स ऑफ ट्रिपोस’ की उपाधि ली। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत लौट आये और बंगलौर में प्रख्यात वैज्ञानिक डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन के निर्देशन में प्रकाश सम्बन्धी शोध किया। इसकी चर्चा सब ओर होने पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की उपाधि से सम्मानित किया। अब उनके शोध पत्र विश्वविख्यात शोध पत्रिकाओं में छपने लगे।


अब उन्होंने कर्णावती (अमदाबाद) के डाइकेनाल और त्रिवेन्द्रम स्थित अनुसन्धान केन्द्रों में काम किया। उनका विवाह प्रख्यात नृत्यांगना मृणालिनी देवी से हुआ। उनकी विशेष रुचि अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में थी। वे चाहते थे कि भारत भी अपने उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज सके। इसके लिए उन्होंने त्रिवेन्द्रम के पास थुम्बा और श्री हरिकोटा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किये।

डा. साराभाई भारत के ग्राम्य जीवन को विकसित देखना चाहते थे। ‘नेहरू विकास संस्थान’ के माध्यम से उन्होंने गुजरात की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह देश-विदेश की अनेक विज्ञान और शोध सम्बन्धी संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य थे। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बाद भी वे गुजरात विश्वविद्यालय में भौतिकी के शोध छात्रों को सदा सहयोग करते रहे।

ISRO से आईआईएम-ए तक, एक आभारी राष्ट्र आपकी विरासत के लाभों का लाभ उठा रहा है।

उन्होंने ८६ वैज्ञानिक शोध पत्र लिखे एवं ४० संस्थान खोले।

उनमें अर्थशास्त्र और प्रबंध कौशल की अद्वितीय सूझ थी। उन्होंने किसी समस्या को कभी कम कर के नहीं आंका। उनका अधिक समय उनकी अनुसंधान गतिविधियों में गुजरा और उन्होंने अपनी असामयिक मृत्युपर्यन्त अनुसंधान का निरीक्षण करना जारी रखा।


     डॉ॰ साराभाई द्वारा स्थापित कुछ सर्वाधिक जानी-मानी संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं- भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद; भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद; सामुदायिक विज्ञान केन्द्र; अहमदाबाद, दर्पण अकादमी फॉर परफार्मिंग आट्र्स, अहमदाबाद; विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, तिरूवनंतपुरम; स्पेस एप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद; फास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफबीटीआर) कलपक्कम; वैरीएबल एनर्जी साईक्लोट्रोन प्रोजक्ट, कोलकाता; भारतीय इलेक्ट्रानिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) हैदराबाद और भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड (यूसीआईएल) जादुगुडा, बिहार।

डा. साराभाई 20 दिसम्बर, 1971 को अपने साथियों के साथ थुम्बा गये थे। वहाँ से एक राकेट का प्रक्षेपण होना था। दिन भर वहाँ की तैयारियाँ देखकर वे अपने होटल में लौट आये; पर उसी रात में अचानक उनका देहान्त हो गया।

इस महान वैज्ञानिक के सम्मान में तिरूवनंतपुरम में स्थापित थुम्बा इक्वेटोरियल रॉकेट लाँचिंग स्टेशन (टीईआरएलएस) और सम्बध्द अंतरिक्ष संस्थाओं का नाम बदल कर विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र रख दिया गया। यह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक प्रमुख अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र के रूप में उभरा है। 1974 में सिडनी स्थित अंतर्राष्ट्रीय खगोल विज्ञान संघ ने निर्णय लिया कि 'सी ऑफ सेरेनिटी' पर स्थित बेसल नामक मून क्रेटर अब साराभाई क्रेटर के नाम से जाना जायेगा।



मंगलवार, 11 अगस्त 2020

खुदीराम बोस : स्वतंत्रता सेनानी

 अमर बलिदानी खुदीराम बोस / बलिदान दिवस -11अगस्त


भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के वीरों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमें खुदीराम बोस का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से बहुत दुर्व्यवहार करते थे। ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड उन दिनों मुज्जफरपुर, बिहार में तैनात था।  वह छोटी-छोटी बात पर भारतीयों को कड़ी सजा देता था। अतः क्रान्तिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया।


कोलकाता में प्रमुख क्रान्तिकारियों की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुँचाने की योजना पर गहन विचार हुआ। उस बैठक में खुदीराम बोस भी उपस्थित थे। यद्यपि उनकी अवस्था बहुत कम थी; फिर भी उन्होंने स्वयं को इस खतरनाक कार्य के लिए प्रस्तुत किया। उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व दिया गया।


योजना का निश्चय हो जाने के बाद दोनों युवकों को एक बम,तीन पिस्तौल तथा 40 कारतूस दे दिये गये। दोनों ने मुज्जफरपुर पहुँचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया। कुछ दिन तक दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है; पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल रहता था। अतः उस समय उसे मारना कठिन था।


अब उन्होंने उसकी शेष दिनचर्या पर ध्यान दिया। किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था। दोनों ने इस समय ही उसके वध का निश्चय किया। 30अपै्रल, 1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गये। शराब और नाच-गान समाप्त कर लोग वापस जाने लगे। अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली। खुदीराम और प्रफुल्ल की आँखें चमक उठीं। वे पीछे से बग्घी पर चढ़ गये और परदा हटाकर बम दाग दिया। इसके बाद दोनों फरार हो गये।


परन्तु दुर्भाग्य की बात कि किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब आया ही नहीं था। उसके जैसी ही लाल बग्घी में दो अंग्रेज महिलाएँ वापस घर जा रही थीं। क्रान्तिकारियों के हमले से वे ही यमलोक पहुँच गयीं। पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया। बग्घी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बतायी। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी सारी रात भागते रहे। भूख-प्यास के मारे दोनों का बुरा हाल था। वे किसी भी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुँचना चाहते थे।


प्रफुल्ल लगातार 24 घण्टे भागकर समस्तीपुर पहुँचे और कोलकाता की रेल में बैठ गये। उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था। प्रफुल्ल की अस्त व्यस्त स्थिति देखकर उसे संदेह हो गया। मोकामा पुलिस स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा; पर उसके हाथ आने से पहले ही प्रफुल्ल ने पिस्तौल से स्वयं पर ही गोली चला दी और बलिपथ पर बढ़ गये।


इधर खुदीराम थक कर एक दुकान पर कुछ खाने के लिए बैठ गये। वहाँ लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहाँ दो महिलाएँ मारी गयीं। यह सुनकर खुदीराम के मुँह से निकला - तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया ? यह सुनकर लोगों को सन्देह हो गया और उन्होंने उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया। मुकदमे में खुदीराम को फाँसी की सजा घोषित की गयी। 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गये। तब उनकी आयु 18 साल 8महीने और 8 दिन थी। जहां वे पकड़े गये, उस पूसा रोड स्टेशन का नाम अब खुदीराम के नाम पर रखा गया है। 


सौजन्य : विश्व संवाद केन्द्र

संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई है...