बुधवार, 24 मई 2023

सेंगोल : भारत का राजदंड







भारत का नया संसद भवन के निर्माण का कार्य करीब समाप्त हो गया है और अगले कुछ दिनो में नये संसद भवन का उद्घाटन भी किया जायेगाउद्घाटन प्रधानमंत्री को करना चाहिए या राष्ट्रपति को इस बात पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में विवाद चल रहा है. अब यह जानकारी प्राप्त हो रही है कि भारत के नये संसद भवन में स्पीकर के पास 'सेंगोल' रखा जायेगा.  जब से यह खबर आइ है कि भारत के नये संसद भवन में सेंगोल को स्थापित किया जाएगा तभी से यह चर्चा का आरंभ हो गया है कि आखिर सेंगोल है क्या ? 'सेंगोल'  वैसे कोइ नया नहीं है भारत के लिये, सेंगोल भारत की स्वतंत्रता और भारत के स्वर्णिम इतिहास के साथ जुडा हुआ है

'सेंगोल' शब्द का उद्भव और इतिहास

 कहा जाता है कि सेंगोल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द "संकु" से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है "शंख"। और ऐसा भी कहा जाता है कि  सेंगोल यह शब्द तमिल भाषा के शब्द 'सेम्मई' से निकला हुआ शब्द है। इसका अर्थ होता है धर्म, सच्चाई और निष्ठा। सेंगोल राजदंड भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार का प्रतीक हुआ करता था। हिंदू मान्यताओं और सनातन धर्म  में शंख को बहुत पवित्र माना गया है। सेंगोल शब्द्प्रयोग यह चोला साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। पुरातन काल में सेंगोल को सम्राटों की शक्ति और अधिकार का प्रतीक माना जाता था। इसे राजदंड भी कहा जाता था। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो इसी सेंगोल को अंग्रेजों से सत्ता मिलने का प्रतीक माना गया। अब नए संसद भवन में सेंगोल को स्थापित किया जाएगा। अब तक इस सेंगोल को प्रयागराज के संग्रहालय में रखा गया था। 

भारत के लोगों के पास शासन एक आध्यात्मिक परंपरा से आया. सेंगोल शब्द का अर्थ और भाव नीति पालन से है. ये पवित्र है, और इस पर नंदी विराजमान हैं. ये आठवीं शताब्दी से चली आ रही सभ्यतागत प्रथा है. चोल साम्राज्य से चली आ रही है.

सेंगोल का तमिल चोल साम्राज्य से संबंध 

चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का सब से बडा साम्राज्य रहा है और चोल राजवंश के इतिहास को देखे तो पता चलता है कि चोल साम्राज्य के राजा और राजवंश साहित्य, कला, वास्तुकला एवं संस्कृति के संरक्षण में अपने असाधारण योगदान के लिए इतिहास प्रसिद्ध था। सेंगोल चोल राजाओं शासनकाल के दौरान उनकी सच्चाई, शक्ति और संप्रभुता  के प्रतिष्ठित प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध हुआ और इतिहास में अपनी अमर कहानी लिखी है।

चोल साम्राज्य के उस सुवर्णकाल के दौरान राजाओं के राज्याभिषेक समारोह होते थे तब उस समारोह में सेंगोल का अत्यधिक महत्व हुआ करता था। 'सेंगोल'  एक ध्वजदंड या भाले के स्वरूप में कार्य करता था, 'सेंगोल' में अद्भुत नयनरम्य और विलक्षण उत्कीर्णन, नक्काशी और जटिल सजावट होती थी। 'सेंगोल' को अधिकार एवं शक्ति का एक पावन प्रतीक माना जाता था, जो एक शासक के द्वारा दूसरे शासक को सत्ता के हस्तांतरण के स्वरूप में सौंपा जाता था। 

समकालीन समय में अगर देखा जाये तो सेंगोल को अत्यधिक सन्मानित किया जाता है,आदर दिया जाता है। सेंगोल आज के समय में भी गहरा सांस्कृतिक महत्व रखता है। सेंगोल भारत की पुरातन, स्वर्णिम और ऐतिहासिक विरासत एवं परंपरा के प्रतीक के रूप में अत्यंत प्रतिष्ठित है, जो विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, त्योहारों और महत्वपूर्ण समारोहों के अभिन्न अंग के स्वरूप में कार्य करता है।

'सेंगोल' और भारत की स्वतंत्रता 
भारत के अंतिम ब्रिटिश वायसराय लार्ड माउंटबेटन अपने कार्यकाल के बहुत मत्वपुर्ण और अंतिम टास्क की तैयारी कर रहे थे, यह टास्क था भारत को सत्ता हस्तांतरित करने का। भारत को सत्ता का हस्तांतरण का कागजी कार्य पूरा हो चुका था, परंतु ये प्रश्न था कि आखिर भारत की स्वतंत्रता और सत्ता हस्तांतरित करने का प्रतिक क्या होगा? लार्ड माउंटबेटन के इस प्रश्न का उत्तर उस समय किसी के पास नहीं था यह प्रश्न लोर्ड माउंट्बेटन ने जवाहरलाल नेहरु से भी पुछा जवाहरलाल नेहरु के पास इस प्रश्न का उत्तर नही था तब जवाहर लाल नेहरू गए तमिलनाडु से संबंध रखने वाले पूर्व गर्वनर जनरल सी. राज गोपालाचारी के पास और सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) से सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीकात्मक समारोह के विषय में सलाह मांगी। सी. राज गोपालाचारी भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को समझते थे, उन्होंने बहुत विचार करके जवाहरलाल नेहरुने मांगी सलाह का प्रत्युत्तर देते हुए चोल राजवंश के सत्ता हस्तांतरण के मॉडल से प्रेरणा लेने का सुचन कीया और सेंगोल का नाम सुझाया। इतिहास बताता है की चोल वंश में एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता सौंपते समय शीर्ष पुजारियों के आशीर्वाद लिए जाते थे। राजाजी ने बताया, चोल राजवंश के काल में एक राजा से उसके उत्तराधिकारी को सत्ता का हस्तांतरण सेंगोल के द्वारा प्रतीकात्मक रुप से किया जाता था। सेंगोल को तत्कालिन समय में और आज भी अधिकार और शक्ति के प्रतीक माना गया है।
भारत के ऐतिहासिक धरोहर को जानने वाले राजाजीने इस चर्चा के बाद तमिलनाडु के तंजौर जिले में स्थित सब से पुराने एक धार्मिक मठ, थिरुववदुथुराई अधीनम से संपर्क किया। अधीनम मठ से जुड़े संस्थान भगवान शिव की शिक्षाओं और परंपराओं का अनुपालन एवं अनुसरण करते हैं। करीब 500 से अधिक वर्षों से सातत्यपुर्ण रुप से कार्य कर रहे थिरुववदुथुरै अधीनम का अधीमों के बीच एक महत्वपूर्ण और सन्माननीय स्थान है। राजाजी ने थिरुवावदुथुराई के 20वें गुरुमहा महासन्निधानम श्रीलाश्री अंबलवाण देसिगर स्वामी से संपर्क किया, वह उस समय बीमार थे, परंतु उन्होंने इसका दायित्व स्वीकार किया उन्होंने प्रसिद्ध जौहरी वुम्मिडी बंगारू कोसेंगोल बनाने के लिए कहा अंतत: सोने का सेंगेाल तैयार कराया गया, जिसकी लंबाई लगभग पांच फीट थी। विशेष रूप से,जिसके शीर्ष पर नंदी को विराजमान किया गया जो न्याय और निष्पक्षता को दर्शाता है। मठ की ओर से ही एक दल को विशेष विमान से नई दिल्ली भेजा गया, ताकि सेंगोल को लार्ड माउंटबेटन तक पहुंचाया जा सके। सेंगोल के निर्माण में शामिल और वुम्मिदी परिवार के दो सदस्य वुम्मिदी एथिराजुलु (96 वर्ष) और वुम्मिदी सुधाकर (88 वर्ष) आज भी जीवित हैं।
 

 

रविवार, 21 मई 2023

गंगा : भारत की प्रथम क्लोन गिर गाय की बछड़ी


समग्र ब्रह्मांड में प्राकृतिक प्रकार से हुआ जन्म एक विशेष प्रसंग हैं, चाहे वो  धरती पर किसी जीव का बच्चा हो या आकाशगंगा में अथवा आकाशगंगा के बाहर अन्य आकाशगंगा में  किसी  तारे का जन्म हो। मानव जाति प्रतिदिन विज्ञान के पथ पर आगे बढ रही है और इसी  पथ पर आज मानव जाति विज्ञान के उस छोर पर पहुंच गई है जहां उसने जन्म की प्राकृतिक व्यवस्था को चुनौति देकर प्रकृति को अपने हाथ में लेने का प्रयास किया है।  ऐसी  एक प्रयास का परिणाम है गंगा बछडी, क्लोनिंग पद्धति से जन्मा गिर गाय का मादा बछडा गंगा भारत के क्लोनिंग विज्ञान की दिशा में मील का पत्थर गिना जा रहा है।  हरियाणा के करनाल स्थिति राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान ने यह इतिहास रचा है।  2021 में उत्तराखंड लाइव स्टॉक डेवलपमेंट बोर्ड देहरादून के सहयोग से राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल ने भारत में पाइ जानेवाली गिर, साहीवाल और रेड-सिंधी जैसी देशी गायों के क्लोनिंग का कार्य शुरू किया था। इसी परियोजना के तहत 16 मार्च 2023 को गिर नस्ल की एक क्लोन बछडी का जन्म हुआ. इसका नाम गंगा रखा गया। जन्म के समय इसका वजन 32 किलोग्राम था औऱ यह बछड़ी स्वस्थ है. गिर गाय भारत के देशी गाय की एक प्रसिद्ध नस्ल है. जो मूलत: गुजरात में पाई जाती है. हरियाणा के करनाल में राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) में गंगा का जन्म करवाने वाले वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि क्लोनिंग से देशी गायों के प्रजनन को बढ़ावा मिलेगा, जिनकी संख्या क्रॉस-ब्रीडिंग, उच्च उपज वाली विदेशी नस्लों और निर्यात को अपनाने से घट गई है।

जिसके तहत एनडीआरआई कार्य करता है ऐसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डॉ. हिमांशु पाठक का मानना है की “गिर गाय जैसे देशी जानवर रोग प्रतिरोधी हैं और देश की गर्म और आर्द्र जलवायु के अनुकूल हैं। क्लोनिंग तकनीक में भारत में पशुपालन के द्वारा दूध से आमदनी करनेवाले वकिसानों के लिए अधिक दूध देने वाले स्वदेशी मवेशियों की आवश्यकता को पूरा करने की क्षमता है," 



गिर गाय ही क्यों ?

हरित क्रांति के बाद, कृषि के बढ़ते मशीनीकरण ने इन गायों की भारतीय नस्लों को आर्थिक रुप से कम लाभदायक बना दिया था, इसलिए किसानों ने ज्यादा दूध उत्पादन के लिए क्रॉस-ब्रीडिंग का प्रयोग करने का प्रयास कीया, परंतु लम्पी त्वचा रोग जैसी बीमारियों के लिए संकर नस्ले अधिक संवेदनशील निकले और यह प्रयास असफल और नुकसानदायक दिखाई देने लगा। ऐसे समय पर राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल ने देसी गायों के सरंक्षण और संख्या वृद्धि के लिए पशु क्लोनिंग तकनीक विकसित करने का आरंभ किया। प्रश्न यह था कि किस नस्ल का क्लोनिंग किया जाय तब यह ध्यान किया गया कि पारंपरिक भारतीय गाय की नस्लें जैसे गिर, साहीवाल और रेड सिंधी मुख्य रूप से अपेक्षाकृत ज्यादा दूध देने वाले जानवर हैं। 

     इस काम के लिए गिर नस्ल का चुनाव इसलिए किया गया क्योंकि ये गाय अन्य नस्लों की अपेक्षा, बहुत अधिक सहनशील होती है। यह अत्यधिक तापमान व ठंड को आसानी से सहन कर लेती है. इनके अंदर अन्य गायों के मुकाबले रोग प्रतिरोधक क्षमता भी ज्यादा होती है एवं विभिन्न ऊष्ण कटिबन्ध रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए जानी जाती है. इसी कारण, भारत की देशी गायों की ब्राजील, अमेरिका, मैक्सिको, और वेनेजुएला में बहुत मांग हैं. 

डॉ. सोलकर बताते है "जब हम सबसे बेहतर नस्ल की पहचान करने बैठे, तो गिर नस्ल की गाय को निस्संदेह चैंपियन पाया। यह एक मजबूत नस्ल है और कभी भारत में बहुतायत से पाई जाती थी।  यह कठोर मौसम का सामना कर सकती है।  इन सबसे ऊपर, यह एक अधिक दूध देने वाली नस्ल है।  इस कारण इसे ब्राजील ले जाया गया जहां इसने श्वेत क्रांति लाई,” डॉ. सेलोकरने आगे कहा।  “गिर और साहीवाल गायों में दुग्ध उत्पादन को 2-3 गुना तक बढ़ाने की क्षमता होती है।  एक सामान्य भारतीय गाय एक दिन में औसतन 4-5 लीटर देती है, वहां यह नस्लें एक दिन में 15-20 लीटर उत्पादन कर सकती हैं।"

फोटो सौजन्य: द क्विंट


कैसे हुआ गिर गाय का क्लोनिंग 

इस प्रोजेक्ट से संलग्न वैज्ञानिक के अनुसार ‘भैंस की अपेक्षा गाय से सेल और अंडे निकालना काफी मुश्किल था. साथ ही हमारे पास गाय की क्लोनिंग की टेक्नीक भी मौजूद नहीं थी. ऐसे में हमें काफी रिसर्च करनी पड़ी इस तकनीक को विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है. हम 2021 से ही इसकी कोशिश में जुटे थे यह पूरी प्रक्रिया में करीब 2 वर्ष का समय लगा और अब आकर हमें सफलता मिली है.’ 

गाय के इस बछड़े को पैदा करने के लिए वैज्ञानिकों ने तीन जानवरों का इस्तेमाल किया। अंडाणु को साहीवाल नस्ल से लिया गया था, दैहिक कोशिका गिर नस्ल से ली गई थी और एक सरोगेट पशु एक संकर नस्ल था। गिर गाय के क्लोनिंग की संपूर्ण प्रक्रीया का विवरण एनडीआरआई के वैज्ञानिक ने ऐसे किया....

एनडीआरआई करनाल के वैज्ञानिक डॉ नरेश सेलोकर के अनुसार क्लोनिंग में स्पर्म का नहीं, किन्तु सोमेटिक सेल या कोशिकाओं का उपयोग होता है। सोमेटिक सेल या कोशिकाओं को जिस नस्ल का बच्चा चाहिए उस नस्ल के जानवर के शरीर से निकालकर प्रयोगशाला में 'कल्चर' किया जाता है और साथ ही अंडक (ओसाइट्स) को सूइयो की सहायता से अलग कर दिया जाता है। इस प्रकीया के बाद दोनो को मिलाकर भ्रूण तैयार किया जाता है, इस प्रक्रीया में 7-8 दिन का समय लगता है। बाद में भ्रूण (ब्लास्टोसिस्ट) को  सरोगेट माता (गाय) के अंदर प्रस्थापित किया जाता है। यह प्रक्रीया से क्लोन तैयार होता है। इसके 9 महीने बाद क्लोन पशु के बच्चे का जन्म होता है। गंगा की क्लोनिंग के लिए गिर नस्ल का सेल लिया गया. और साहीवाल किस्म का अंडा लिया गया, जिसका DNA निकाल दिया गया था, इससे भ्रूण तैयार किया गया, इस भ्रूण को जर्सी गाय के अंदर स्थानांतरित किया गया.' 

भारतीय वैज्ञानिको के द्वारा क्लोनिंग तकनीक के प्रयोग का इतिहास 

एनडीआरआई करनाल क्लोनिंग तकनीक से भैंस की क्लोनिंग करने में सफलता हासिल कर चुका है। फरवरी 6, 2009 में इस टेक्निक के द्वारा विश्व के सर्वप्रथम भेंस का क्लोनिंग सफलतापूर्वक किया गया था। भैंस के बच्चे को पैदा किया गया था, उसका नाम समरुपा  रखा गया दुर्भाग्यवश इस बछडे के फेफड़े में संक्रमण हो गया और पांच-छह दिन में उसकी मृत्यु हो गई। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से वैज्ञानिक निराश नहीं हुए और इसी वर्ष 6 जून 2009 को उनका प्रयास फलीभूत हुआ, और एक मादा क्लोन बछड़ा गरिमा पैदा हुई, जन्म समय गरिमा का वजन 43 किग्रा था, गरिमा दो वर्ष से अधिक समय तक जीवित रही. गरिमा का जन्म भारत में डेयरी अनुसंधान के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है।  बाद में  22 अगस्त 2010 को गरिमा-2 का जन्म क्लोनिंग से किया गया, जिससे अब तक सात सामान्य बछड़े पैदा हो चुके हैं।वैज्ञानिकों ने 26 अगस्त, 2010 को पहला नर बछड़ा श्रेष्ठ भी पैदा किया, जिसके वीर्य का उपयोग अच्छे जननद्रव्य के गुणन के लिए किया जा रहा है। क्लोन भैंस गरिमा ने 2013 में मादा बछड़ा को जन्म दिया जिसका नाम महिमार खा गया, उसके बाद 2014 में एक और मादा बछड़े को जन्म दिया उस बछडे का नाम करिश्मा रखा गया। यह बछडे क्लोन भैंस से पैदा हुए विश्व के पहले बछड़े हैं। वर्ष 2017 में CIRB ने पहले क्लोन असमिया भैंस नर बछड़े का जन्म करवाया,  उस नर असमिया नर भेंस बछडे का नामांकन सच-गौरव किया गया। 2021 का गणतंत्र दिवस एनडीआरआई के इतिहास में सर्वदा स्मरण किया जायेगा उस दिन  एक क्लोन नर भैंस बछड़े का जन्म करवाया गया और गणतंत्र दिवस पर जन्म हुआ था इस दिन को याद रखने के लिए उसका नाम गणतंत्र रखा गया। 

वर्ष 2012 में एनडीआरआई और शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने कश्मीर में नूरी नामक विश्व की पहली पश्मीना भेड के क्लोन का जन्म करवाया। 

संवैधानिक संतुलन: भारत में संसद की भूमिका और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में, जाँच और संतुलन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की भूमिकाएँ सावधानीपूर्वक परिभाषित की गई है...