(2) ऐतिहासिक अनुभव, परंपराएं एवं संस्कृति : आधारभूत रूप से किसी देश की विदेश नीति उसके तत्कालीन ऐतिहासिक अनुभवों, परंपराओं, और संस्कृति से निर्धारित होती है। भारत की विदेश नीति में इन अनुभवों और परंपराओं के साथ-साथ भारतीय दर्शन के अनुसार भारतीय परंपराओं में राजनीतिक शक्ति का एक आदर्शात्मक स्वरुप उजागर होता है, जिसमें शांति सहयोग और वसुधैव कुटुंबकम् रूपी अंतरराष्ट्रीय वाद का आदर्श रूप दिखाई पड़ता है। भारतीय संस्कृति साम्राज्यवाद और जातिवाद के घोर विरोधी ‘जियो और जीने दो’ के शांति के विचारों का समन्वित रूप विदेशनीति में विरासत के रुप में सम्मिलित है।
(3) राष्ट्रीय हित – प्रत्येक देश की विदेश नीति राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है। राष्ट्रीय हित में इन सभी बातों का योग होता है, जो किसी राष्ट्र की संस्कृति, सुरक्षा और भौतिक कल्याण की अधिकतम गारंटी पर बल देता है। यह सत्य है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति सदा चलायमान रही है, उसमें कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होते। यह सभी राष्ट्रीय हित को देखते हुए बनते और बिगड़ते रहते हैं। स्थायी तत्व के्वल राष्ट्रीय हित होता है, जिसके लिए ही विभिन्न प्रकार का राजनीतिक ताना-बाना बुना जाता है।
(4) राष्ट्रीय सुरक्षा – प्रत्येक देश की विदेश नीति का लक्ष्य देश की सुरक्षा और विकास होता है। सैनिक दृष्टि से दुर्बल राष्ट्र भी अधिक समय तक अपनी स्वतंत्रता नहीं बनाए रख सकता है। भारत के संदर्भ में यह सत्य सटीक बैठता है। भारत के सैनिक दुर्बलता और राज्यों के बीच वैमनस्यता के कारण ही उसे मंगोलो, सिकंदर और अंग्रेजों की सैनिक शक्ति के सामने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखना पड़ा था। स्वतंत्रता के बाद भी भारत सैनिक दृष्टि से सफल राष्ट्र नहीं था। इसीलिए भारत की विदेश नीति में सभी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने और अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए असंलग्नता की नीति को अपनाया है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शीत युद्ध के चलते नित्य बदलते राजनीतिक समीकरण और गुटबंदियों के चलते भारतीय विदेश नीति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता, सुरक्षा के लिए समयानुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पुनः निर्धारण की प्रक्रिया अपनाती रहती है। जैसे पहले अमेरिका से संबंध बहुत खराब थे, किंतु अब मधुर संबंध बन गए हैं, और वह आण्विक सहयोग भी देने को तैयार है।
(5) आर्थिक विकास – आधुनिक समय में राष्ट्रीय आर्थिक विकास राष्ट्रों के जीवन का महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। हर राष्ट्र की आंतरिक नीति आर्थिक जीवन स्तर को ऊंचा उठाते हुए उसके माध्यम से समृद्ध राष्ट्र बनाना रहता है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग उद्योग, उत्पादन, निर्यात पर है, इसके लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व तकनीकी सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, ऐसी स्थिति में संपन्न और पूंजीवादी राष्ट्र इस तरह के सहयोग के बहाने देश की आंतरिक एवं विदेश नीति को प्रभावित करने हेतु सहायता के मुख्य द्वार खोलने को तैयार रहते हैं।
(6) अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सद्भाव को बढ़ावा – भारतीय संस्कृति एवं परंपराऐं सदैव वसुधैव कुटुंबकम के भेद वाक्य को आधार बनाकर अपनी विदेश नीति को विश्व शांति सुरक्षा और सद्भाव को लक्ष्य लेकर चलती हैं। मार्च 1953 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यही कहा था कि “हम विश्व शांति के पक्षधर हैं और शांति की स्थापना के लिए यदि भारत कुछ कर सके तो उसे करने का हम भरसक प्रयत्न करते रहेंगे।” इस नीति के द्वारा भारत का सदैव यह प्रयास रहा है कि विश्व राष्ट्रों के मध्य ऐसी स्थितियां न पैदा हो जायें, जिससे अंतरराष्ट्रीय तनाव और अशांति का वातावरण बने और सारा विश्व तनाव ग्रस्त हो जाये। इसीलिए भारत अपनी नीति में आचरण के पांच नैतिक सिद्धांत पंचशील को प्रमुख आधार बनाते हुए शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को अपनाने के लिए विश्व राष्ट्र का सम्मान करता आ रहा है।
(7) आधुनिक तकनीकी प्रभाव – हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, जहां तकनीकी ज्ञान के निरंतर विकास ने हमारी सोंच और गतिविधियों को प्रभावित कर दिया है। प्रत्येक राष्ट्र अपने आर्थिक विकास के लिए अत्याधुनिक तकनीक अपनाना चाहता है। अर्धविकसित और विकासशील राष्ट्र विश्व के विकसित देशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। फलस्वरूप ऑटोमेटिक इलेक्ट्रिक पावर, रेडियो एक्टिव आइसोटोप, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, स्पीकर के आधुनिक उपकरण उपग्रह प्रणाली पर एकाधिकार रखने वाले देश इन जानकारियों को स्थानांतरण व प्रयोग की अनुमति के लिए शर्त रख कर अन्य विकसित और विकासशील देशों की विदेश नीति को प्रभावित कर रहे हैं।
प्रचार और प्रसारण के माध्यम से व्यक्ति और समाज दोनों के चिंतन और राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संबंध घटनाओं पर जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इनके द्वारा किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति का विश्लेषण राष्ट्रों के मध्य संबंधों को बिगाड़ने और सुधारने का रहता है। आज विदेश नीति के ऊपर इनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
भारतीय विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं या सिद्धांत
1) गुटनिरपेक्षता की नीति : गुटनिरपेक्षता की नीति भारत की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू एवं केंद्र बिंदु है। इसकी घोषणा स्वतंत्रता से पूर्व ही अंतरिम सरकार के उपाध्यक्ष के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रथम रेडियो भाषण के रूप में 7 सितंबर 1946 को ही कर दी थी।
गुटनिरपेक्षता क्या है ? इसका अर्थ है कि भारत वर्तमान विश्व राजनीति के दोनों गुटों में से किसी गुट में भी शामिल नहीं होगा, किंतु गुटों से अलग रहते हुए भी उनसे मैत्री संबंध कायम रखने की चेष्टा करेगा और उनकी बिना शर्त सहायता से अपने विकास में तत्पर रहेगा। इसका उद्देश्य किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच संतुलन का निर्माण करना है। असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने आप को दूर रखती है, किंतु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है। यह गुटनिरपेक्षता नकारात्मक तटस्थता, अप्रगतिशीलता अथवा उपदेशात्मक नीति नहीं है। इसका अर्थ सकारात्मक है अर्थात् जो सही और न्याय संगत है उसकी सहायता और समर्थन करना तथा जो अनीतिपूर्ण एवं अन्याय संगत है उसकी आलोचना एवं निंदा करना। अमेरिकी सीनेट में बोलते हुए नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि “यदि स्वतंत्रता का हनन होगा, न्याय की हत्या होगी अथवा कहीं आक्रमण होगा, तो वहां हम न तो आज तटस्थ रह सकते हैं और न भविष्य में तटस्थ रहेंगे।”
गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने के कारण:
1. किसी भी गुट में शामिल होकर अकारण ही भारत विश्व में तनाव की स्थिति पैदा करना उपयुक्त नहीं मानता।
2. भारत अपने विचार प्रकट करने की स्वाधीनता को बनाए रखना चाहता है। उसने किसी गुट विशेष को अपना लिया तो उसे गुट के नेताओं का दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा।
3. भारत अपने आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को और अपनी योजनाओं की सिद्धि के लिए विदेशी सहायता पर बहुत कुछ निर्भर है। गुटनिरपेक्षता की नीति से सोवियत रूस और अमेरिका दोनों से एक ही साथ सहायता मिल पा रही है।
4. भारत की भौगोलिक स्थिति गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने को बाध्य करती है। साम्यवादी देशों से हमारी सीमाएं टकराती हैं। अतः पश्चिमी देशों के साथ गुटबंदी करना विवेक सम्मत नहीं। पश्चिमी देशों से विशाल आर्थिक सहायता मिलती है। अतः साम्यवादी गुट में सम्मिलित होना भी बुद्धिमानी नहीं।
2) पंचशील को अपनाना : पंचशील के पांच सिद्धांत का प्रतिपादन भी भारत की शांति का द्योतक है। 1954 के बाद से भारत की नीति को पंचशील के सिद्धांतों ने एक नई दिशा प्रदान की है। पंचशील से अभिप्राय आचरण के पांच सिद्धांत। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में यह व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं, उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के संबंध निश्चित किए गए। यह सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
1. एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना।
2. एक दूसरे पर आक्रमण न करना।
3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
4. परस्पर सहयोग और लाभ को प्रोत्साहित करना।
5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।
3) मैत्री और सह-अस्तित्व की नीति : भारत की विदेश नीति मैत्री और सह-अस्तित्व पर जोर देती है। भारत की धारणा रही है कि विश्व में परस्पर विरोधी विचारधारा में सह-अस्तित्व की भावना पैदा हो। यदि सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता तो आणविक शास्त्रों से समूची दुनिया का ही विनाश हो जाएगा। इसी कारण भारत ने अधिक से अधिक देशों के साथ मैत्री संधि और व्यापारिक समझौते किए। इन संधियों में भारत-नेपाल संधि, भारत-इराक मैत्री संधि, भारत-जापान शांति संधि, भारत-मिश्र शांति संधि, भारत रूस मैत्री संधि, भारत-बांग्लादेश मैत्री संधि उल्लेखनीय है।
4) साधनों की पवित्रता की नीति : भारत की नीति अवसरवादी और अनैतिक नहीं रही है। भारत साधनों की पवित्रता में विश्वास करता रहा है। भारत की विदेश नीति महात्मा गांधी के इस मत से बहुत प्रभावित है कि न केवल उद्देश्य बल्कि उसकी प्राप्ति के साधन भी पवित्र होने चाहिए। यद्यपि उनके सत्य और अहिंसा के साधनों को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता है फिर भी भारत निरंतर इस बात का प्रयत्न करता रहा है कि अंतरराष्ट्रीय विवादों का समाधान शांतिपूर्ण उपायों से किए जाए हिंसात्मक साधनों से नहीं।
5) साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध : भारत ने उपनिवेशवाद के विरुद्ध अपना संघर्ष अति गंभीर रूप से लिया। भारत ने इसे केवल अपने देश की स्वतंत्रता तक ही सीमित न रख कर संपूर्ण उपनिवेशवादी तत्वों के विरुद्ध तथा सभी अधीन देश के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण के रूप में लिया है। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई भारत ने इंडोनेशिया के स्वतंत्रता के रूप में लड़ी। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से ही नहीं, बल्कि नई दिल्ली में 1949 में एशियाई देशों का सम्मेलन बुलाकर इंडोनेशिया की आजादी हेतू व्यापक प्रयास किया। जिसके परिणामस्वरूप अंततः इंडोनेशिया को पूर्ण स्वतंत्र राज्य घोषित कराने में सफलता प्राप्त हुआ।
6) रंगभेद का विरोध : रंगभेद की नीतियों के विरुद्ध भी भारत ने भरसक प्रयत्न किये। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों का विरोध महात्मा गांधी से लेकर स्वतंत्र भारत में भी बहुत सशक्त रूप से हुआ। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंच के माध्यम से इस नीति को समाप्त करने की बात बहुत ही सशक्त रूप से पेश की। यद्यपि इस रंगभेद के विरुद्ध भारत की लड़ाई में अमेरिका व इंग्लैंड का पूर्ण सहयोग प्राप्त न होने के कारण कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु फिर भी भारत जनमत को इसके विरुद्ध करने में सफल रहा। भारत के निरंतर प्रयासों के कारण सुरक्षा परिषद ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार के विरुद्ध अनेक प्रतिबंधों की घोषणा की। इस प्रकार भारत की सक्रिय भूमिका के साथ-साथ अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के समर्थन से जिंबाब्वे, नामीबिया आदि की स्वतंत्रता के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद रहित सरकार की स्थापना हुई।
7) निःशस्त्रीकरण का समर्थन : भारत ने सदैव विश्व में सामान्य एवं व्यापक निःशस्त्रीकरण हेतु प्रयास किए हैं। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र एवं उसके बाहर भी सभी मंचों पर निःशस्त्रीकरण की प्रबल वकालत करने वाले राष्ट्रों में हमेशा भारत का अग्रणी स्थान रहा है। भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव का समर्थन किया है तथा अपने ज्ञापनों एवं संशोधनों के माध्यम से इस प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाया है। इस दिशा में नेहरू सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने परमाणु शस्त्रों से मुक्त विश्व स्थापित करने हेतु 2 अप्रैल 1954 में संयुक्त राष्ट्र में स्टैंडस्टील रिजोल्यूशन प्रस्तुत किया था। परंतु जब 1959 तक भारत के बार-बार दोहराने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हुई तब भारत की पहल पर 1961 में महासभा ने निःशस्त्रीकरण समिति के रूप में एक स्थायी समिति की स्थापना पर सहमति व्यक्त की। इन प्रयासों के फलस्वरूप 1963 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आंशिक परमाणु प्रतिबंध संधि पर सहमति हुई। इसे पांच परमाणु शक्तियों एवं भारत सहित कई अन्य राज्यों ने स्वीकृति प्रदान की।
8) संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था : भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना करने वाला एक संस्थापक सदस्य है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न अंगों और विशेष अभिकरणों में सक्रिय रूप से भाग लेकर महत्वपूर्ण कार्य किया है। भारत ने कभी भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन नहीं किया और संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेशों का यथोचित सम्मान किया है। कोरिया और हिंद चीन में शांति स्थापित करने के लिए भारत ने राष्ट्र संघ की सहायता की। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर कांगो में शांति स्थापना हेतु अपनी सेनाएं भेजी, जिन्होंने उस देश की एकता को सुरक्षित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन करने में भारत ने जितना सहयोग किया है, उतना दुनिया के बहुत कम देशों ने किया है। आज भी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का अटूट विश्वास है और उसकी यह नीति है कि दुनिया के अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने में विश्व संस्था का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये।