भारत सदीओ से शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के मंत्र का अनुपालनकर्ता देश है. यह विचार आज भी भारत के आंतरराष्ट्रिय संबंधो में झलकता है। भारत न तो कोइ अनावश्यक ऐसे बयान देता है और न ही ऐसी कोइ हरकत करता है की जिससे सीमा पर तनाव जैसी स्थिति व्यक्त हो हालांकी भारत के सामने ऐसी कोइ भी चुनौती खडी कर दी जाती है जिससे भारत की संप्रभुता और अखंडीतता पर प्रश्न हो तब भारत प्रश्न खडे करने वाले को उसकी भाषा में उत्तर देता आया है और वर्तमान में ज्यादा मजबुती से देता है और देने के लिये सदैव तैयार रहेता है। इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है पोखरण-2 के बाद भारत द्वारा ‘नो फर्स्ट यूज’ और ‘मिनिमम डेटरेंस’ की निति को अपनाया है। परंतु यदि किसी दूसरे देश द्वारा युद्धोन्मादी अभिव्यक्ति का संदर्भ हो तो उसके अनुरूप प्रत्युत्तर राष्ट्रीय दायित्व की श्रेणी में आता है।
चीन और भारत
चीन भारत की स्वतंत्रता के बाद भारत के साथ 1962 में एक युद्ध लड चुका है और आज भी ऐसा मानता है की भारत 1962 का भारत ही है और भारत-चीन की सीमाओ पर समयांतर पर भारत को उकसाने के प्रयास करता रहेता है चाहे वो डोकलाम हो, गलवान हो या वर्तमान में उसका दुस्साहस जहाँ भारतीय सैनिकोने चीन के सैनिको को अपने शौर्य का परचा देते हुए भगाया ऐसा तवांग हो चीन ऐसी हरकतो को लगातार करता रहेता है।
वर्तमान में भारत का सब से बडा व्यापारिक पार्टनर है, और विश्व की द्वितिय नंबर की आर्थिक शक्ति भी है और अगर भारत की और देखे तो भारत वर्तमान विश्व में सब से तेज गति से बढ रही आर्थिक व्यवस्था है। भारत न केवल सब से तेज गति से बढती हुई आर्थिक व्यवस्था है अपितु संरक्षण,अंतरिक्ष,उत्पादन, वैश्विक निवेश, सैन्य सरंजाम जैसे अनेक क्षेत्रो में समग्र विश्व को अपना लोहा मनवा रहा है, और वैश्विक कोरोना महामारी के बाद जिस तरह से चीन के विरुद्ध विश्व में विमर्श चला और चीन में से विदेशी कंपनीयां अपना व्यवसाय बंध करके भारत में आ रही है इसे देखकर और ऐसे वैश्विक वातावरण में चीन विश्व और एशिया में भारत को अपना प्रतिद्वंद्वी मानता है और इस कारण से चीन ऐसी हरकते करता रहेता है जिससे विश्व में भारत की शाख कम हो और भारत एक कमजोर राष्ट्र दिखे इस परिप्रेक्ष्य में भारत के साथ चीन के संबंधो को और चीन की मंशा की तरफ द्रष्टि करना आवश्यक है।
चीन की दक्षिण प्रशांत में वर्चस्व की राजनीति
चीन की हरकतो को देखे तो वर्ष 2020 की गलवान हिंसा के बाद चीनी नेता के वक्तव्यों को सामान्य बातचीत की शैली भर नहीं मान सकते।चीन वर्तमान में सख्ती के उस दौर में आ गया है, जहां उसकी हरकतो में आक्रामकता अधिक दिख सकती है। हाल में हुए कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस में इसे और बल मिला है, जब शी जिनपिंग को लगातार तीसरी बार पार्टी महासचिव चुना गया। पिछले दशकों में चीन ने साम्यवादी शासन के बावजूद शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन का एक रास्ता खोज लिया था, जिसमें एक नेता दस वर्षों और अधिकतम 70 वर्ष की उम्र तक पार्टी का महासचिव और देश का राष्ट्रपति होता था। लेकिन शी जिनपिंगने इसे पूरी तरह से बदल दिया है। अब शी जिनपिंग तीसरे कार्यकाल के साथ पार्टी के सर्वशक्तिमान नेता बन गए हैं, इसलिए चीन तानाशाही, आक्रामकता और युद्धोन्मादी अभिव्यक्ति का शिकार अधिक रहेगा। दुसरी तरफ देखे तो चीन के सामने घरेलू राजनीति में विरोध लगातार बढ रहा है, वर्तमान में सामान्य नागरिको द्वारा जीरो कोविड नीति का व्यापक तौर पर विरोध होने के बाद उस नीति को बदलना पडा यह देखने के बाद और आंतरिक विरोध से विश्व का ध्यान भटाकाने तथा आंतरिक विरोध को दबाने तथा दक्षिण प्रशांत में वर्चस्व की राजनीति करने के अलावा चीन अब एक खतरनाक विदेश और आर्थिक नीति अपनाने की ओर बढ़ चुका है। चीन के द्वारा लिये जा रहे कदमो की तरफ द्रष्टि करे तो हम देख सकते है कि इसका उद्देश्य है- 'चीन को दुनिया से स्वतंत्र और दुनिया को चीन पर निर्भर बनाना'। एक तरफ आंतरिक विरोध की स्थिति है और दुसरी और पुरा विश्व रुस-युक्रेन युद्ध में चीन की भुमिका को संदेह की नजर से देखता है तब चीन क्या करेगा यह बडा प्रश्न है। यद्यपि यूक्रेन में रूस के लिए बनती प्रतिकूल परिस्थितियों के दृष्टिगत चीन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में थोड़ा संभलकर कदम बढ़ाएगा, लेकिन वह अपने मौलिक चरित्र से पीछे हटना नहीं चाहेगा।
शी जिनपिंग की आंतरिक चुनौती
वर्तमान में चीन की जीरो कोविड नीति के व्यापक विरोध के कारण से उस नीति में बदलाव लाना पडा उस कदम से विश्व में चीन और शी जिनपिंग की छवि कमजोर राष्ट्र और कमजोर राष्ट्रप्रमुख है ऐसी बन रही है जिससे शी जिनपिंग अपनी छवि और अपनी नेतृत्व क्षमता को मजबूती से देश के अंदर और बाहर प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पीछे भी कई कारण हैं। चीन के सामान्य लोग एवम आर्थिक मामलो के विशेषज्ञ मानते हैं कि सख्त जीरो कोविड नीति के तहत सख्ती से किए गए लाकडाउन ने चीनकी अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है। वैसे चीन की साम्यवादी सरकार के इतिहास को देखे तो पता चलता है कि जब भी सामान्य नागरिको की तरफ सरकार के कीसी कदम का विरोध होता है तब नागरिकों की तरफ से भारी विरोध न हो इसके लिए नागरिक अधिकारों का दमन किया गया है और वर्तमान शासक उसी इतिहास को दोहरायेंगे। इस दिशा में चीन की साम्यवादी सरकार का पहला कदम होता है बलपूर्ण धमकी या अपनी ताकत को प्रदर्शित करने के लिए वक्तव्यों के माध्यम से सेना को छद्म निर्देश और लोगों को संदेश पहुंचाना। जैसे चीन का इतिहास रहा है वैसे ही आंतरिक स्थितियों को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार का विरोध करने वालों के लिए सख्त सजा के प्रविधान किए गए हैं, लेकिन फिर भी इंटरनेट मीडिया के माध्यम से चीन के नागरिक विरोध करते हुए स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं और चीन की सरकार की बेचैनी भी।
चीन की सरकार आंतरिक मामलो में दिन ब दिन सख्त होती जा रही है यहाँ तक की चीनी सोश्यल मीडिया साइट ‘वीबो’ पर मंडारिन भाषा में की गइ सरकार विरोधी पोस्ट्स हटा दि जाती हैं। आंतरिक विरोध को दबाने में जुटे शी जिनपिंग चाइनीज आर्मी पीएलए को आगामी चार वर्षों में विश्व स्तरीय सेना बनाना चाहते हैं। इसके साथ ही शी जिनपिंग यूनीफिकेशन और रीजनल युद्ध को वरीयता देते हुए दिख रहे हैं। शी जिनपिंग प्रत्येक स्तर पर अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के साथ-साथ शक्तिशाली बनाने की मंशा पाले हुए हैं। इसलिए भारत के विरुद्ध चाइनीज आर्मी के दुस्साहस का भारत की तरफ से उनकी ही भाषा में उत्तर दिया जाता है अथवा सख्त प्रतिक्रिया दी जाती है तो चीन की चिंता बढ जाती है,जिसके निश्चित कारण हैं। अगर वास्तविक स्थिति देखे तो चीन भी यह जान गया है की आज का भारत 1962 का भारत नहि है इसलिए चीन भारत के साथ कोई बड़ा युद्ध करना कदापि नहीं चाहेगा,लेकिन वह भारत को दबाव में रखने की कोशिश करता रहेगा। मुख्य रूप से तो शी जिनपिंग के निशाने पर ताइवान है, परंतु भारत उपमहाद्वीपीय शक्ति के रूप में स्वीकार्य हो रहा है और भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ रही है। इसलिए चीन यदि रीयूनीफिकेशन के बहाने ताइवान और तिब्बत को निशाना बनाने की कोशिश कर सकता है तो वह तवांग यानी अरुणाचल और सिक्किम तक अपनी हरकतों के दायरे का विस्तार भी इस जैसी किसी छद्म नीति के जरिये कर सकता है।
भारत को सतर्क रहना होगा
वैसे वर्तमान युग यथार्थवाद से कहीं अधिक प्रतीकवाद और संदेहवाद का युग है और चीन प्रतीकवाद और संदेहवाद का सहारा अधिक ले रहा है। हालांकि भारत ‘ग्लोबल वैल्यू चेन’ में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ एक एशियाइ शक्ति के रूप में उभरता हुआ दिख रहा है ऐसे में भारत को भी सतर्क रहना होगा क्योंकि चीन बहुआयामी से बहुरूपिये तक की भूमिका में समग्र विश्व के समक्ष नजर आता है जिसमें व्यापार के ‘वेपनाइजेशन’ से लेकर ‘डिप्लोमैटिक सिंबोलिज्म’ तक बहुत कुछ शामिल है। अत: भू-राजनीतिक खेल अब केवल दो शब्दों तक ही सीमित नहीं रह गया है, अपितु बहुत कुछ है जो द्रश्यमान नहीं है। इसलिए केवल आंख और कान ही नहीं खुले रखने होंगे, बल्कि मस्तिष्क को प्रति क्षण सक्रिय और संवेदनशील बनाए रखना होगा।
पिछले दिनों भारत और चीन, दोनों ही देशों की तरफ से दो बयान आए। एक बयान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की तरफ से था जो उन्होंने दिल्ली में सैन्य कमांडरों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए दिया था। उनका कहना था, ‘भारत एक शांति प्रिय देश है जिसने कभी किसी देश को ठेस पहुंचाने की कोशिश नहीं की, परंतु यदि देश के अमन-चैन को भंग करने की कोई कोशिश की जाती है तो उसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।’ दूसरा बयान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग आठ नवंबर को दे चुके है वो है।वैश्विक राजनितिक विशेषज्ञ भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का बयान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस बयान का ही प्रत्युत्तर मान रहे है।
सेंट्रल मिलिट्री कमीशन (सीएमसी) के संयुक्त अभियान कमान मुख्यालय में सैन्य कर्मियों को संबोधित करते हुए शी जिनपिंगने कहा था ‘चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ती अस्थिरता व अनिश्चितता का सामना कर रही है। ऐसे में हमें युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहना चाहिए।’ शी जिनपिंगने उसी समय चीनी सेना (PLA) को 'सैन्य प्रशिक्षण और युद्ध की तैयारियों को बढ़ाने’ का आह्वान भी किया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस बयान पर सवाल उठता है कि क्या ये बयान औपचारिक थे जो सामान्य स्थितियों में भी देशों के माध्यम से अपने स्टेटस को व्यक्त करने के लिए दिए जाते रहते हैं या फिर इनके निहितार्थ कुछ और हैं ?
कैसे पिछड रहा है चीन ?
इस पुर्व भुमिका के बाद प्रश्न यह उठ रहा है की चीन वैश्विक वर्चस्व कायम करने की उसकी दौड में भारत से कैसे पिछड रहा है या पिछड गया है ? युरोपिय युनियन के और अन्य देशोने जिस तरह चीन से किनार करने की शुरुआत की है और वैश्विक महासत्ता अमेरिका के साथ मिलकर जिस तरह युक्रेन का समर्थन कर, ताइवान को शस्त्रो को देकर तथा तवांग में चीन के दुस्साहस के बाद भारत का समर्थन कर के जो चित्र प्रस्तुत किया है उसको देख यह कहना गलत नहि होगा की चीन वैश्विक वर्चस्व कायम करने की अपनी मंशा में भारत से पिछड गया है ।
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